शनिवार, अगस्त 07, 2010

...न भूलने वाली हार

इतिहास से/ दिलचस्प मुकाबले

तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार. यह बसपा का बेहद आक्रामक नारा था. इस नारे के बूते ही 1980 के दशक में वह दलितों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना जगाने में कामयाब हुई. वह यह साबित करने में कामयाब हुई कि दलित उद्धार उसकी ही नर्सरी में संभव है. बसपा के संस्थापक कांशीराम का राजनीतिक करियर भले ही बहुत लम्बा नहीं रहा लेकिन जिस बसपा की बुनियाद उन्होंने रखी, वह आज फूल- फल रही है. वह देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों में शुमार है. बसपा प्रमुख कांशीराम भले ही दो बार लोकसभा के लिए चुने गए, लेकिन 11वें  लोकसभा चुनाव में उप्र की फूलपुर संसदीय सीट से उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा. 1996 की चुनावी जंग में फूलपुर से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जंग बहादुर सिंह पटेल ने उनको 16021 मतों से परास्त किया. कांशीराम को 146823 मत और जंग बहादुर को 162844 मत मिले. हालांकि, इस लोकसभा चुनाव में कांशीराम पंजाब की होशियारपुर संसदीय सीट से विजयी हुए और सदन तक पहुँचने में कामयाब भी रहे, लेकिन कांशीराम फूलपुर की हार को वह कभी नहीं भूल सके.
दरअसल, कांशीराम जिस जातीय समीकरण से फूलपुर चुनाव लड़ने गए, उस पर वहां की जनता ने पानी फेर दिया. फूलपुर संसदीय सीट में करीब 70 फीसद आबादी पिछड़े और अल्पसंख्यको की है. उन्हें यह उम्मीद थी कि इसका लाभ उन्हें इस चुनाव में मिलेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कांशीराम का आकलन फेल हो गया. दरअसल, आजादी के बाद से यह कांग्रेस की परंपरागत सीट थी. मंडल राजनीति के बाद यहाँ मत जातीय आधार पर बट गए. यही वजह है कि 1980 के बाद यहाँ कभी कांग्रेस उम्मीदवार को सफलता नहीं मिल सकी. तीन लोकसभा चुनावों में बसपा उम्मीदवार चुनाव निकालने में भले ही कामयाब नहीं हो सका हो, पर वह दूसरे स्थान पर रहा.

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