बुधवार, जून 29, 2011












लोकपाल दायरे में नहीं होगा न्यायपालिका : पीएम
 अपने को लोकपाल के दायरे में शामिल करने से कोई परहेज नहीं जताने के साथ ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च न्यायपालिका को इसके अंतर्गत लाने से इंकार कर दिया।
 प्रधानमंत्री ने कहा कि उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के अंतर्गत लाने से यह संविधान की भावना के विपरीत हो जाएगा। उच्च न्यायपालिका के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा कि इसे लोकपाल के दायरे में लाने के बारे में स्पष्ट आपत्ति है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को संविधान के दायरे में अपने मामलों को स्वयं संचालित करने के तरीके ढूंढने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सिंह ने सवाल किया, अगर शीर्ष अदालत को लोकपाल के दायरे में ले आया गया तो वह पेचीदा मुद्दों पर फैसले कैसे करेगी। सिंह ने कहा कि हम व्यापक राष्ट्रीय सहमति कायम करने के लिए ईमानदारी से काम करेंगे, ताकि मजबूत लोकपाल के लिए हम कानून बना सकें।
केंद्र और राज्य सरकारों के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अंतर्गत लाने की हजारे पक्ष की मांग के बारे में उन्होंने कहा, 'मुझे शक है कि हमारी व्यवस्था इस दबाव को सहन करने में सक्षम हो पाएगी। हमें अपने आप को उच्च स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार तक केन्द्रित रखना चाहिए, जो कहीं अधिक घृणित है।" उन्होंने कहा कि वह समाज के सदस्यों का सम्मान करते हैं। इसीलिए वह उनसे संवाद कायम किए हुए हैं। उन्होंने अन्ना हजारे से मार्च में मुलाकात के दौरान वादा किया था कि सरकार संसद के मानसून सत्र में लोेकपाल विधेयक लाने के लिए प्रतिबद्ध है।
 

सिंह ने कहा हालांकि, दो तीन दिन के भीतर ही उन्होंने पाया कि हजारे को कुछ अन्य शक्तियां नियंत्रित कर रही थीं। उन्होंने कहा कि इसी तरह उनकी सरकार ने योगगुरु रामदेव से पूरी ईमानदारी से बातचीत की थी। यह प्रयास इसलिए किया गया ताकि उनके साथ बेवजह की गलतफहमी पैदा न हो।
 

रविवार, जून 26, 2011

पीएम पद किसी की जागिर नहीं : आडवाणी

साभार एलके आडवाणी का ब्लाग

कांग्रेस पार्टी के भीतर से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की मांग के बीच भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात पर जोर दिया है कि भारत जैसे लोकतंत्र में प्रधानमंत्री पद को किसी एक परिवार की जागीर नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
 आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि एक समय ऐसा था, जब कांग्रेस ऐसा व्यापक प्लेटफॉर्म था, जिसमें सभी क्षेत्रों के देशप्रेमियों को जगह मिली हुई थी। वास्तव में, यह महात्मा गांधी का ही आदेश था कि उस समय हिंदू महासभा से जुड़े डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और कांग्रेस के आलोचक डॉ. बीआर अंबेडकर को स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में जगह मिली। उन्होंने लिखा है, 'दु:ख की बात ये है कि कांग्रेस आज सिर्फ एक परिवार की जागीर बन गई है। प्रधानमंत्री का पद या तो नेहरू परिवार के किसी सदस्य या उनके द्वारा नामांकित किसी व्यक्ति के लिए आरक्षित रह गया है। कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा नामंकित प्रधानमंत्री की भारत भारी कीमत चुका रहा है।"
 आडवाणी के मुताबिक, इसके बाद अब कांग्रेस पार्टी के भीतर से मांग उठ रही है कि नेहरू परिवार के एक वंशज को प्रधानमंत्री पद संभाल लेना चाहिए। भाजपा नेता ने लिखा, 'संप्रग सरकार जैसा शासन दे रही है, हमारा देश उसका भार ज्यादा दिन नहीं उठा सकता। भारत जैसे महान लोकतंत्र में प्रधानमंत्री पद किसी एक परिवार की जागीरदारी नहीं बनने दिया जाना चाहिए।

कश्मीर समस्या नेहरू परिवार का विशेष उपहार : आडवाणी का मानना है कि कश्मीर समस्या देश को दिया गया नेहरू परिवार का विशेष 'उपहार" है। विभाजन के समय इसका समाधान कर पाने में जवाहर लाल नेहरू की असफलता की देश भारी कीमत चुका रहा है। आडवाणी ने अपने ब्लॉग में  लिखा है, 'दु:ख की बात है कि न तो दिल्ली में नेहरू सरकार और न ही श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला सरकार ने कभी इस बात को माना कि जम्मू-कश्मीर का भारत संघ में पूरी तरह एकीकरण करने की जरूरत है। शेख अब्दुल्ला के मामले में समस्या यह थी कि उनकी एक तरह से स्वतंत्र कश्मीर का एकछत्र नेता बनने की महत्वाकांक्षा थी, जबकि नेहरूजी की ओर से इस मामले में साहस और दूरदर्शिता की कमी रही।    
भारत ने गवाएं कई मौके : आडवाणी के मुताबिक, 'गौर करने वाली बात यह है कि गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल सभी दूसरी राजशाही वाली सियासतों का भारत संघ में एकीकरण करने में सफल रहे। जब उनमें से किसी ने दुविधा दिखाई या पाकिस्तान में शामिल होने की इच्छा जाहिर की, तो पटेल ने उन्हें उनकी जगह दिखा दी। उदाहरण के लिए, हैदराबाद के निजाम के सशस्त्र विद्रोह को कुचल दिया गया। उन्होंने लिखा है, 'जम्मू-कश्मीर राजशाही वाला एकमात्र ऐसा राज्य था, जिसे भारत से जोड़े जाने की प्रक्रि या सीधे प्रधानमंत्री नेहरू की देख-रेख में हो रही थी। कश्मीर को पाने के लिए भारत के खिलाफ पाकिस्तान की 1947 की पहली जंग ने भी नेहरू सरकार को इस बात का बेहतरीन मौका दिया था कि वह न केवल हमला करने वालों को खदेड़ देती, बल्कि पाकिस्तान के साथ हमेशा के लिए कश्मीर मुद्दे को सुलझा देती। भाजपा के वरिष्ठ नेता ने लिखा है कि भारत ने ऐसा दूसरा बड़ा मौका 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी गंवाया। इसमें भारत ने न केवल पाकिस्तान को हराया, बल्कि पाकिस्तान के लगभग 90,000 युद्धबंदी भी भारत में आ गए।
तोहफे के छह परिणाम : आडवाणी के मुताबिक, इस 'तोहफे" के छह परिणाम आज तक देखने को मिल रहे हैं। उन्होंने कहा, इसका पहला परिणाम, पाकिस्तान की ओर से सबसे पहले कश्मीर और बाद में भारत के विभिन्न हिस्सों में सीमा पार से आतंकवाद का निर्यात है। दूसरा, पाकिस्तान की ओर से कश्मीर और बाद में देश के दूसरे हिस्सों में फैले धार्मिक चरमपंथ का निर्यात। तीसरा, हमारे सुरक्षा बलों के हजारों जवानों और नागरिकों की मौत। चौथा, सैन्य और अद्र्धसैनिक बलों पर खर्च होने वाले हजारों करोड़ों रुपए। इसी की बदौलत बाहरी ताकतें भारत पाकिस्तान के तनावपूर्ण संबंधों का फायदा उठा रही हैं। इस तोहफे का अंतिम नुकसान कश्मीरी पंडितों के पूरे समुदाय को उठाना पड़ रहा है, जो अपनी जमीन से विस्थापित होकर अपनी ही मातृभूमि में शरणार्थी बन कर रहने को मजबूर हो गए हैं।
काम आया श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान : आडवाणी ने इस मामले में डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के योगदान की चर्चा करते हुए लिखा है कि डॉ. मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को पृथक रखने के परिणामों को बहुत पहले ही महसूस कर लिया था। इसी के चलते उन्होंने प्रदेश के भारत में पूरी तरह विलय का सपना देखा। डॉ. मुखर्जी ने अपने इस अभियान को तीन स्तरों,  राजनीतिक, संसदीय और कश्मीर में मैदानी स्तर पर अंजाम देने की योजना बनाई और 'सबसे पहले उन्होंने अक्तूबर, 1951 में कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प के तौर पर भारतीय जन संघ बनाया। इसका एजेंडा कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के अलावा, हाल ही में स्वतंत्र हुए भारत को समृद्ध बनाना था, जहां किसी के साथ जाति, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव न हो। दूसरे स्तर के बारे में उन्होंने लिखा है कि 1952 में जब पहले आम चुनाव हुए, तब डॉ. मुखर्जी एक तरह से लोकसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर उभरे। यहां उन्होंने जम्मू-कश्मीर को लेकर कांग्रेस सरकार की

शनिवार, जून 25, 2011

मादक पदार्थो की तस्करी : भेंट चढ़ते मासूम


26 जून : अंतरराष्ट्रीय मादक पदार्थ निरोधक दिवस
  दुनियाभर में नशीले पदार्थों के व्यापार को बढ़ावा देने वाले नशे के सौदागर गरीब और अनाथ बच्चों का इस्तेमाल इस धंधे को आगे बढ़ाने में कर रहे हैं। इसके लिए वे बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और  छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से बच्चों को तस्करी करके लाया जाता है। उनको बाल मजदूरी तथा नशीले पदार्थो की तस्करी जैसे कामों में लगाया जाता है।
  बच्चे आसानी से तस्करों के गिरफ्त में आ जाते हैं। इसलिए उनका इस्तेमाल मादक पदार्थों की तस्करी में किया जाता है। यह बहुत खतरनाक अवधारणा है, जो लगातार बढ़ती जा रही है। मादक पदार्थो की तस्करी करने वाले बच्चो को बाल न्याय अधिनियम के तहत बहुत कम सजा दी जाती है, जिसका तस्कर फायदा उठाते हैं।
     बड़ी संख्या में बच्चे उत्तर पूर्व से मादक पदार्थ तस्करी कर उसे बिहार और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में आपूर्ति करते हैं। दिल्ली में 50 हजार बच्चे सड़कों पर रहते हैं। इनमें से ज्यादातर नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। उसकी तस्करी भी करते हैं। बच्चों को बाल मजदूरी और तस्करी के धंधे में धकेलने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती। इससे अपराधी बिना डर के इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देते हैं। 
जागी दुनिया...   वैश्विक स्तर पर नशीले पदार्थो के बढ़ते इस्तेमाल के खिलाफ दिसम्बर, 1987 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 26 जून के दिन को मादक पदार्थो की तस्करी एवं गैर कानूनी प्रयोग के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया।

यूएनओडीसी की रिपोर्ट-विश्वभर के 21 करोड़ लोग या 15 से 64 साल उम्र की विश्व की 4.9 प्रतिशत जनसंख्या नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करती है।
-प्रति वर्ष दो लाख लोग मादक पदार्थों के इस्तेमाल के कारण मारे जाते हैं।
-मादक पदार्थो की तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है।
-वर्ष 2010 में विश्वभर में अफीम की खेती 1,95,700 हेक्टेयर में हुई।
-अफगानिस्तान में विश्वभर के कुल अफीम उत्पादन का करीब 74 प्रतिशत हिस्सा या 3,600 टन पैदा होता है।


'जब तक कि हम अवैध नशीले पदार्थों की मांग की कम नहीं करते हैं तब तक हम पूरी तरह से उनकी फसलों के उत्पादन या उनकी तस्करी को पूरी तरह से रोक नहीं सकते हैं।"                                      बान की मून (संयुक्त राष्ट्र महासचिव)

गुरुवार, जून 23, 2011

शास्त्री के निधन पर एक देश की 'झूठी अफवाह"

 गुप्तचर रिपोर्ट की खुलासा  ताशकंद में चार दशक पहले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन के मामले में एक देश ने झूठी अफवाह फैलाई, जिसके अब भारत के साथ अच्छे संबंध है। यह संकेत केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से पेश गोपनीय दस्तावेजों से मिलते हैं।
 मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंदा मिश्र ने निर्देश दिया था कि शास्त्री की मौत से संबंधित गोपनीय दस्तावेजों को सीलबंद लिफाफे में उनके समक्ष पेश किया जाए। यद्यपि प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस निर्देश पर केवल एक पन्ने का दस्तावेज पेश करते हुए कहा कि गोपनीय श्रेणी में उसके पास केवल यही दस्तावेज है।    दस्तावेज को देखने के बाद मिश्रा ने कहा कि दस्तावेज का पूर्व प्रधानमंत्री की मौत से कोई सीधा संबंध नहीं है। मिश्रा ने कहा कि दस्तावेज में विभिन्न सूत्रों से एकत्र गुप्तचर जानकारियां हैं। इसमें कहा गया है कि एक देश शास्त्री की मौत पर झूठी अफवाह फैला रहा था।
 
उन्होंने बिना किसी देश का नाम लिए बिना कहा कि इसमें जिस देश का उल्लेख है उसके साथ तत्कालीन समय में हमारे अच्छे संबंध नहीं थे, लेकिन अब निश्चित रूप से उसके साथ अच्छे संबंध है। इस दस्तावेज को यदि जारी कर दिया गया तो इससे निश्चित रूप से इन संबंधों पर असर पडे़गा। यह मामला 'सीआईएज आई आन साउथ एशिया" के लेखक अनुज धर की ओर से सूचना के अधिकार के तहत दायर आवेदन का है, जिसमें उन्होंने वर्ष 1966 मे ताशकंद में शास्त्री की मौत से संबंधित प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा रखे गए गोपनीय दस्तावेज को जारी करने की मांग की थी। इस पर प्रतिक्र या देते हुए भाजपा नेता एवं शास्त्री के पोते सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा कि भारत में सभी गलत चीजों के लिए एक बार पाकिस्तान या अंतरराष्ट्रीय समुदाय को जिम्मेदार ठहराने की आदत थी।

उन्होंने पूछा कि यदि गत चार दशकों से इसे लेकर झूठी अफवाह थी तो सरकार गोपनीय रिकार्डों को जारी करने से परहेज क्यों कर रही थी।  उन्होंने कहा कि संदेह झूठी अफवाह पर नहीं है। संदेह अतिसंवेदनशील हालात में शास्त्रीजी की असामयिक निधन के कारण है। इस सुनवाई के दौरान मिश्रा ने यहा भी कहा कि शास्त्री का निधन हुए चार दशक बीत चुके हैं आैर यदि सरकार ने इस मामले में श्वेतपत्र पहले ही जारी कर दिया होता तो षड्यंत्र के ये सिद्धांत समाप्त हो सकते थे, लेकिन उसने इस मामले पर चुप्पी साध ली। सिंह ने कहा कि यह मानने के लिए प्रर्याप्त कारण हैं कि उनकी मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी क्योंकि उनका पार्थिक शरीर नीला पड़ गया था, उनका कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया, निधन के बाद उनका खानसामा अचानक गायब हो गया तथा आखिरी समय में प्रधानमंत्री के लिए निर्धारित होटल का कमरा बदला जाना। 
 खानसामा के बारे में यह माना जाता है कि वह पाकिस्तान भाग गया था। आवेदन दायर करने वाले धर ने कहा कि शास्त्री के निधन के पीछे किसी अन्य देश का हाथ होने की जो बात सूचना में कही गयी है उसकी जड़ें तत्कालीन सोवियत संघ की गुप्तचर एजेंसी केजीबी तक हो सकती है। केजीबी इस मामले से अपना पल्ला झाड़ना चाहती थी और उस समय सीआईए का हौवा भारत पर हावी था। पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 के युद्ध के बाद शास्त्री पाकिस्तान के  तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान से मिलने तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद गए थे। 11 ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर होने के बाद जनवरी 1966 को उनका संदिग्ध परिस्थिति में निधन हो गया। उनके परिवार ने इसके पीछे साजिश होने के आरोप लगाते हुए शास्त्री का पोस्टमार्टम कराने की मांग की थी, लेकिन ऐसा नहीं कराया गया।

रविवार, जून 19, 2011

अब डैड के रुआब से बेखौफ हैं लाडले


बदलते दौर में बदल रही है पिता की भूमिका

फादर्स डे पर विशेष

वह दिन हवा हुए जब घर में पिता का रुआब चलता था। घर में पिता से बच्चे खौफ खाते थे। पिता और बच्चों के बीच सिर्फ पढ़ने पढ़ाने की बातें होती थीं। बच्चे मां के जरिए अपनी मांगें पिता तक पहुंचाते थे। आज के नए दौर में पिता की भूमिका और अपने बच्चों के साथ उनके रिश्तों में काफी बदलाव आया है। दोनो के बीच पनपे दोस्ताना रिश्ते,  जहां बच्चे के समग्र विकास में सहायक हैं, वहीं परिवार का माहौल बेहतर बनाने में भी मदद देते हैं। 

 चाइल्ड साइकोलॉजिस्टों की राय : इनका मानना है कि बच्चों के विकास में पिता का मित्रवत व्यवहार और उनका साथ अहम भूमिका निभाता है। समय के साथ रिश्तों में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। आजकल माता-पिता दोनों कामकाजी होते हैं। ऐसे में पिता की भूमिका और जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। बच्चों से उनकी नजदीकी बढ़ी है। यह बच्चे के समग्र विकास के लिए बहुत जरूरी है। पिता को बच्चों से उनकी पढ़ाई, दोस्तों के बारे में बात करना चाहिए। इससे उनके संबंध मित्रवत रहेंगे। दरअसल, पिता की भूमिका का, उसके संबंधों का परिवार और बच्चे पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पिता के बच्चों से संबंध दोस्ताना हो तो इससे परिवार का माहौल सकारात्मक रहता है। इसका बच्चे के विकास पर भी अच्छा असर पड़ता है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्टों की राय है कि संबंधों में और प्रगाढ़ता लाने के लिए पिता को सप्ताहांत पर बच्चों को बाहर ले जाना चाहिए। उनके साथ उनकी रुचि के खेल वगैरह खेलने चाहिए। उनके शिक्षकों से मिलना चाहिए। इससे परिवार पर पिता की पकड़ मजबूत होगी और बच्चा उनसे खुल कर अपनी बात कर पाएगा। यह तब ज्यादा जरूरी हो जाता है जब महानगरों की व्यस्तताभरी जिंदगी के बीच पिता के पास बहुत ज्यादा समय वैसे भी नहीं होता ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करने के बाद कामकाज के बीच जो समय बचता है। उसे वह बच्चों के साथ हंस-खेल कर बिताना चाहते हैं।


क्या कहते हैं बच्चे : अर्णव ने कहा कि कभी-कभी वह एक सख्त पिता की भूमिका में होते हैं, लेकिन अधिकतर मैंने उन्हें मित्रवत व्यवहार करते हुए ही देखा है। वह मेरे सबसे अच्छे दोस्त हैं, पर अन्य मित्रों से अलग वह निस्वार्थ हैं। वह मेरा मार्गदर्शन करते हैं। जब मैं कोई फैसला नहीं ले पाता तो मुझे रास्ता बताते हैं। मैं उन्हें अपनी सारी बातें खुल कर बताता हूं। हां, टीवी देखने को लेकर जरूर उनसे थोड़ा डरता हूं। उनके घर पर नहीं रहने पर टीवी वगैरह ज्यादा चलाता हूं। उनके होने पर थोड़ा कम देखता हूं।

भारत में फादर्स डे के मायने
भारतीय परिप्रेक्ष्य में फादर्स डे का उतना महत्व उतना नहीं है, जितना पश्चिम में है। यहां यह सिर्फ उपहार व कार्ड आदि के व्यापार को बढ़ावा देने का एक साधन है। विदेशों में 17-18 साल की उम्र में ही बच्चे अभिभावकों से अलग रहने लगते हैं। इसलिए फादर्स डे, मदर्स डे आदि उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं, लेकिन भारत में अब भी स्थिति इससे उलट है। यहां आज भी बच्चे लंबे समय तक माता-पिता के साथ ही रहते हैं। उन्होंने कहा कि इसके अलावा भारत के पास होली, दीपावली, रक्षाबंधन सहित खुद अपने इतने त्यौहार हैं कि उसे इन सब की जरूरत ही नहीं है। भारत में तो हर दिन फादर्स डे, मदर्स डे है, क्यों कि हम हमेशा उनके साथ रहते हैं तथा प्यार और भावनाएं उनके साथ बांटते हैं।

पुत्रवधुएं करती है बुजुर्गों के साथ अत्याचार



-इसमें वृद्धों से तेज आवाज में बात करना, अपशब्द का प्रयोग, नाम से पुकारना, गलत आरोप लगाना शामिल है
-करीब 22 प्रतिशत वृद्ध अत्याचार सहते हैं


अभी तक यही माना जाता था कि ससुराल में बहुओं के साथ अत्याचार होता हैं, लेकिन हाल में कराए गए एक सर्वेक्षण में देश के निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में वृद्धों के साथ पुत्रवधुएं के अत्याचार करने की बात सामने आई हैं।
 हेल्पएज, इंडिया की ओर से कराए गए सर्वेक्षण 'एल्डर एब्यूज एंड   क्रइम इन इंडिया" के अनुसार देश के निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में 63.4 प्रतिशत मामलों में पुत्रबधुएं वृद्धों के साथ दुव्र्यवहार करती हैं, जबकि पुत्र 44 प्रतिशत मामलों में ही वृद्धों के साथ अत्याचार हैं। पुत्रों के अत्याचार के मामले में इस वर्ष वृद्धि दर्ज की गई है, पिछले वर्ष यह आकड़ा 53.6 प्रतिशत था।
 देश के नौ शहरों पर आधारित इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट में निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में वृद्धों के मौखिक अत्याचार को आधार बनाया गया। इसमें वृद्धों से तेज आवाज में बात करना, अपशब्द का प्रयोग, नाम से पुकारना, गलत आरोप लगाना शामिल है। सर्वेक्षण के अनुसार उच्च सामाजिक आर्थिक परिवेश में भी वृद्धों के प्रति अशिष्टता करके उनके साथ अत्याचार किया जाता है। सर्वेक्षण के अनुसार मौखिक अत्याचार दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र,  मुंबई,  हैदराबाद और चेन्नई में सबसे अधिक 100 प्रतिशत है। पटना में शारीरिक अत्याचार सबसे अधिक 71 प्रतिशत जबकि अहमदाबाद में सबसे कम है।
सर्वेक्षण के अनुसार वृद्धों के प्रति अत्याचार के मामलों में वृद्धि के लिए मुख्य रूप से शहरों में आवासों के आकार में कमी, सामाजिक परिवेश और मूल्यों में भारी बदलाव तथा नई पीढ़ी की छोटे परिवार को पंसद करना शामिल है । सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि राष्ट्रीय स्तर पर 70 वर्ष से अधिक वृद्धों के मामलों में अत्याचार के मामले सबसे अधिक है। पुत्रों पर निर्भर रहने के कारण वृद्ध महिलाएं सबसे अधिक अत्याचार  की शिकार होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार करीब 22 प्रतिशत वृद्ध अत्याचार सहते हैं।


-मौखिक  अत्याचार : दिल्ली,  मुंबई, हैदराबाद और चेन्नई में सबसे अधिक 100 प्रतिशत है।
-शारीरिक अत्याचार : पटना में सबसे अधिक 71 प्रतिशत, अहमदाबाद में सबसे कम है।


महानगरों में  अत्याचार

 44 प्रतिशत : बेंगलुरू
38 प्रतिशत : हैदराबाद
 30 प्रतिशत : भोपाल
23 प्रतिशत : कोलकाता
02 प्रतिशत : चेन्नई

गुरुवार, जून 16, 2011

सूखे की चपेट में 54,000 गांव

वल्र्ड डे टू कॉमबैट डेजर्टिफिकेशन एंड ड्राउट पर विशेष
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में 54,000 गांव ऐसे हैं, जहां सूखे की समस्या के कारण पीने का पानी तक नहीं मिलता है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1987 के सूखे से देश के 12 राज्यों 10 करोड़ लोग और छह करोड़ मवेशी प्रभावित हुए थे। उस साल फसलों के उत्पादन में 17 प्रतिशत की कमी आई थी।
 एक शोध के मुताबिक देश प्रत्येक 32 सालों में एक भयंकर सूखे का सामना करता है। हर तीसरे साल देश में सामान्य सूखे की स्थिति रहती है। सूखा से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य हैं कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और  झारखंड। हमारा देश हर तीसरे साल सूखे का सामना करता है। राजस्थान का एक बड़ा भाग गर्म मरुस्थल है तो जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के बड़े भाग में बर्फ का मरुस्थल पसरा हुआ है। ऐसे में बढ़ती बंजर भूमि और सूखा के कारण एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब हमें खाने को अनाज मिलना भी मुश्किल हो जाए।

एशिया में 1.7 अरब हेक्टयर भूमि असंचित : संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक एशिया में 1.7 अरब हेक्टयर भूमि संचित नहीं है। इसमें कम सिंचाई वाले और सूखा क्षेत्र शामिल है। संघ ने इससे निपटने के लिए एक 'प्लान ऑफ एक्शन" बनाया। भारत, पाकिस्तान, चीन, नेपाल एवं श्रीलंका सहित एशिया के 24 देशों ने सूखा और मरुस्थलीकरण को रोकने के इस प्लान ऑफ एक्शन को लागू किया है। भारत सरकार ने सूखे और बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर कई योजनाएं लागू की हैं। इनमे तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं वर्ष 1974 में लागू सूखा प्रभावित क्षेत्र कार्यक्रम, वर्ष 1978 में लागू मरुस्थल विकास कार्यक्रम और वर्षा आधारित क्षेत्रों के वर्ष 1990 में लागू राष्ट्रीय जलसंभरण कार्यक्रम।


क्या करें और क्या नहीं करें
-सूखे से निपटने के लिए हमें सिंचाई के क्षेत्र को बढ़ाना होगा़
-सिंचाई की नई तकनीकों को अपनाना होगा, जिससे सिंचाई कम पानी में ही पूरा हो सके
-रासायनिक उर्वरकों के इस्मेताल को रोकना होगा
-उर्वरकों के लगातार प्रयोग से मिट्टी की पानी सोखने की शक्ति कम हो जाती है। ऐसे में बार-बार सिंचाई की जरूरत होती है, जिसमें ज्यादा पानी बरबाद होता है



1977  में सजग हुई दुनिया : वर्ष 1977 में मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए हुई संयुक्त राष्ट्र संघ की एक गोष्ठी में इसे मूर्त रूप दिया गया। इसकी शुरुआत दुनिया के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की मदद करने के लिए की गई। इसके बाद वर्ष 1991 से लागू संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्र म में इस पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इस मामले में हमें इसाइल से सबक लेना चाहिए। उसने रेगिस्तान के बीच 'ग्रीनबेल्ट" विकसित किए हैं जिसके बाद वहां वर्षा की मात्रा में 25 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है।



'हमें देश की नदियों को बचाना होगा। जो जमीनें बंजर हैं, वहां कम पानी के इस्तेमाल से उगने वाले पौधों की खेती आैर पेड़ लगाने को बढ़ावा देना होगा। इससे भू-जल स्तर में सुधार होगा और सूखे की समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी।"    
                                                                                मेधा पाटकर 

                                                   
'अगर हम देश में बाढ़ की कारक नदियों को नहरों के माध्यम से सूखा प्रभावित क्षेत्र से जोड़ दें तो हमें एक साथ बाढ़ और  सूखा दोनों से निजात मिल जाएगी।                                                               डॉ.  अब्दुल कलाम

रविवार, जून 12, 2011

ग्राफ

ग्राफ


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 निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के हक से महरूम नौनिहाल 
छह से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (आरटीई) को लागू हुए एक वर्ष से अधिक समय गुजरने के बावजूद अब तक देश के केवल 18 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने ही इस कानून को अधिसूचित किया है। दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में अभी भी कानून नहीं बनाया जा सका है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय से प्राप्त ताजा जानकारी के अनुसार, नौ राज्यों इस कानून को विधि विभाग को मसौदा विचार के लिए भेजा है। छह राज्यों ने इस कानून को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने की बात कही है। निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून के तहत ही प्रदेशों में राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद (एससीपीसीआर) गठित करने का प्रावधान किया गया है। हालांकि, अब तक केवल 14 राज्यों में ही राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद का गठन किया गया है। असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम आैर उत्तराखंड ने एससीपीसीआर का गठन किया है।
 हालांकि, महत्वाकांक्षी सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के आंकड़ों पर गौर करें तो एसएसए के तहत आरटीई लागू होने के एक वर्ष गुजरने के बाद देश में अभी भी 81 लाख 50 हजार 619 बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर है। 41 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं है। 49 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है। प्राथमिक स्कूलों में दाखिल छात्रों की संख्या 13,34,05,581 है जबकि उच्च प्राथमिक स्कूलों में नामांकन प्राप्त 5,44,67,415 है।
 साल 2020 तक सकल नामांकन दर को वर्तमान 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, लेकिन सर्व शिक्षा अभियान के 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार, बड़ी संख्या में छात्रों को स्कूली शिक्षा के दायरे मेें लाने के लक्ष्य के बीच देश में अभी कुल 44,77,429 शिक्षक ही हैं। देश में फिलहाल छात्र शिक्षक अनुपात 32 : 1 है। वैसे 324 ऐसे जिले भी हैं जिनमें निर्धारित मानक के अनुरूप छात्र शिक्षक अनुपात 30 : 1 से कम है । देश में 21 प्रतिशत ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है। देश में नौ प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जिनमें केवल एक शिक्षक हैं।


राज्यवार स्थितिराज्यों ने बनाया कानून : आंध्र प्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह, बिहार, चंडीगढ़, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, मध्यप्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, नगालैण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम ने आरटीई कानून को किया अधिसूचित
मसौदा पर मंथन : दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मेघालय, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, कर्नाटक ने अपने विधि विभाग को मसौदा विचार के लिए भेजा
कैबिनेट में फंसी फाइल : गुजरात, असम, केरल, मेघालय, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा ने इस कानून को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने की बात कही


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प्राथमिक स्तर  (बालिका नामांकन) : 48.46 प्रतिशत
उच्च प्राथमिक स्तर (बालिका नामांकन) : 48.12 प्रतिशत
अनुसूचित जाति (बच्चों की नामांकन): 19.81 प्रतिशत
अनुसूचित जनजाति (बच्चों की नामांकन) :10.93 प्रतिशत
(सर्व शिक्षा अभियान के वर्ष 2009-10 के आंकड़े)


 

शनिवार, जून 11, 2011

टांय-टांय फिस हुए बाल श्रम रोकने के दावे

वल्र्ड डे एगेंस्ट चाइल्ड लेबर डे पर विशेष
अंतरराष्ट्रीय और  राष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रम को रोकने के लिए बड़े-बड़े कानून बनाए गए है। इसे रोकने के भी दावे किए गए। बावजूद इसके देश की राजधानी सहित सभी कोनों में बाल श्रम बदस्तूर जारी है। अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम संगठन ने बच्चों के अधिकारों के लिए एक प्रोटोकॉल बनाया है, ताकि पूरी दुनिया से बाल श्रम को खत्मा किया जा सके। इस प्रोटोकॉल का अनुमोदन करने वाले देश को बच्चों की बिक्री, बाल वेश्यावृति और बच्चों की प्रोर्नोग्राफी पर पूर्ण रोक लगानी होती है। इन सभी को अपराध की श्रेणी में शामिल करना होता है। मगर भारत ने अभी तक इस प्रोटोकॉल का अनुमोदन नहीं किया है। हाल ही में हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भी बाल अधिकारों पर सम्मेलन के वैकल्पिक प्रोटोकॉल का अनुमोदन कर दिया है। ऐसा करने वाला वह दुनिया का 144वां देश बन गया है।
  दुनिया के 126 देशों में बाल श्रम के खिलाफ एक साथ हुए प्रदर्शन के बाद अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने पहली बार वर्ष 2002 में 'वल्र्ड डे एगेंस्ट चाइल्ड लेबर" की शुरुआत की। इस दिन की शुरुआत इन बच्चों की परेशानियों को लोगों के सामने लाने के लिए की गई। आईएलओ (अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन) ने इस दिन की शुरुआत पूरी दुनिया में बाल श्रम के खिलाफ चल रहे मुहिम के लिए उत्प्रेरक के तौर पर काम करने के लिए किया। बाल अधिकारों पर सम्मेलन के वैकल्पिक प्रोटोकॉल का अनुमोदन वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में हुआ।
दिसम्बर वर्ष 2010 तक हमारे देश में करीब 6 करोड़ बाल श्रमिक हैं। इनमें से करीब एक करोड़ बच्चे बंधुआ मजदूर हैं। इस एक करोड़ में से 50 लाख तो बंधुआ मजदूरों के बच्चे होने के कारण जन्म से ही बंधुआ मजदूर हैं, जबकि शेष 50 लाख आैद्यौगिक ईकाइयों में काम करने वाले बच्चे हैं।" राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की बेवसाइट पर मौजूद वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1.27 करोड़ है। इसमें बंधुआ सहित तमाम तरह के बाल श्रमिक शामिल हैं।
फिलहाल, हमारे देश में राष्ट्रीय बाल आयोग के अलावा दिल्ली एवं बिहार सहित केवल नौ राज्यों में बाल अधिकार आयोग हैं। मगर इन बाल अधिकार आयोगों के पास पर्याप्त शक्तियां नहीं होने के कारण यह बाल श्रम को रोकने में लगातार नाकाम साबित हो रहे हैं। डॉक्टर आनंद कहती हैं, 'बाल श्रम को रोकना सिर्फ सरकार का काम नहीं है। इसे रोकने के लिए हमें खुद जागरूक होना पड़ेगा।"

नौ वर्ष पूर्व हुई शुरुआत

दुनिया के 126 देशों में बाल श्रम के खिलाफ एक साथ हुए प्रदर्शन के बाद अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने पहली बार वर्ष 2002 में 'वल्र्ड डे एगेंस्ट चाइल्ड लेबर" की शुरुआत की। आईएलओ (अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन) ने इस दिन की शुरुआत पूरी दुनिया में बाल श्रम के खिलाफ चल रहे मुहिम के लिए उत्प्रेरक के तौर पर काम करने के लिए किया। बाल अधिकारों पर सम्मेलन के वैकल्पिक प्रोटोकॉल का अनुमोदन वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में हुआ।