शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010

2011 होगा शताब्दी का अनूठा वर्ष

नव वर्ष 2011 इस दृष्टि से शताब्दी का अनूठा वर्ष है कि इसके एक दिन की तिथि, माह तथा वर्ष की संख्याओं से एक के अंक का छक्का लगता है।

यह तिथि है 11 नवम्बर, 2011 जब तिथि माह एवं वर्ष को 11-11-11 के रूप में दर्शाया जाएगा। ऐसी स्थिति शताब्दी में केवल एक बार आती है। इस वर्ष के कुल चार दिनों की तिथि-माह तथा वर्ष सभी में केवल एक का अंक रहेगा। इसकी शुरुआत वर्ष के पहले दिन एक जनवरी 1-1-11 से हो रही है। एक के अंक के छह बार आने की युति पिछली बार 1911 की इसी तिथि को थी आैर अगली बार सन 2111 में होगी। अत: इसे शताब्दी युति कहा जा सकता है।


इससे पहले चार युतियों के मामले में 2001 में भी स्थिति 2011 के निकट थी, किन्तु अंतर यह था कि तब चारो युतियों में एक के अंक की आवृत्ति 2011 के मुकाबले एक एक कम थी। यानी 11 नवम्बर को अधिकतम आवृति पांच ही थी 11-11-1 अगली बार दो फरवरी 2022 को तिथि, माह एवं वर्ष को 2-2-22 के रूप में दर्शाया जाएगा। वर्ष 2022 में दो की संख्या की अधिकतम पांच आवृत्तियां 22 फरवरी 22-2-22 को होगी। उस वर्ष केवल एक ही संख्या यानी दो से बनने वाली तिथि, माह एवं वर्ष की युति केवल इन्हीं दो दिनों में देखने को मिलेगी। इस प्रकार केवल एक संख्या से चार बार उपर्युक्त युतियां 2001 के बाद 2011 में ही बन रही है, जबकि अधिकतम छह बार उसी संख्या यानी एक की आवृत्ति होना तो 2011 को शताब्दी का अनूठा वर्ष ही बना देता है।


इस पूरी शताब्दी में एक ही अंक की आवृत्तियों से बनने वाली ऐसी युतियां इस प्रकार है-

 
         तिथि                               युति

  • -1 जनवरी, 2001                           1-1-1


  • -11 जनवरी, 2001                          11-1-1


  • -1 नवम्बर, 2001                             1-11-1


  • -11नवम्बर, 2001                           11-11-1


  • -2 फरवरी, 2002                               2-2-2


  • -22 फरवरी, 2002                            22-2-2


  • -3 मार्च, 2003                                      3-3-3


  • -4 अप्रैल, 2004                                   4-4-4


  • -5 मई, 2005                                       5-5-5
                      
  • -6 जून, 2006                                      6-6-6


  • -7 जुलाई, 2007                                  7-7-7


  • -8 अगस्त, 2008                                8-8-8


  • -9 सितम्बर, 2009                             9-9-9





2011

  • -1 जनवरी, 2011                                1-1-11

  • -11 जनवरी, 2011                              11-1-11


  • -1 नवम्बर, 2011                               1-11-11

  • -11 नवम्बर, 2011                             11-11-11

2022


  • -2 फरवरी, 2022                                2-2-22


  • -22 फरवरी, 2022                            22-2-22


  • -3 मार्च 2033                                   3-3-33


  • -4 अप्रैल, 2044                                4-4-44


  • -5 मई, 2055                                     5-5-55


  • -6 जून, 2066                                    6-6-66


  • -7 जुलाई, 2077                                7-7-77


  • -8 अगस्त 2088                               8-8-88


  • -9 सितम्बर, 2099                            9-9-99

शनिवार, दिसंबर 25, 2010

2010 : कुछ उजले, कुछ स्याह अक्स

2010 : कुछ उजले, कुछ स्याह अक्स
भ्रष्टाचार आैर रिश्वतखोरी जैसे आरोपों के बीच देशवासियों के लिए इस वर्ष कुछ खबरें राहत देने वाली भी रहीं हैं। मसलन भारत में शराब पीने वालों की तादाद दुनिया के कई देशों से काफी कम आंकी गई। बेंगलुरू का आईआईएम विश्व के शीर्ष 25 प्रबंधन संस्थानों में शामिल किया गया। जयपुर के एक थाने को एशिया का सर्वश्रेष्ठ थाना करार दिया गया। जाते बरस में भारत इसी तरह के अच्छे बुरे कई कारणों से खबरों में रहा है।
उजले अक्स

वेधशाला ने बढ़ाया नाम : राजस्थान के जयपुर में 18वीं सदी में निर्मित खगोलीय वेधशाला को यूनेस्को ने इस साल विश्व विरासत स्थल का दर्जा दे दिया।
वेधशाला का निर्माण महाराजा जयसिंह द्वितीय ने वर्ष 1727 से वर्ष 1734 के दौरान कराया था।


मैसूर भी रहा सुर्खियों में : 'महलों के शहर" के नाम से मशहूर मैसूर को न्यूयार्क टाइम्स ने इस साल घूमने के लिए 31 सबसे अच्छे शहरों की सूची में चौथे पायदान पर रखा। इस सूची में 13 वें स्थान पर मुंबई है।


बेहतर रहा आईआईएम बेंगलुरू : फ्र ंस के वार्षिक सर्वेक्षण में भारतीय प्रबंधन संस्थान बेंगलुरू (आईआईएम-बी) को विश्व के शीर्ष 25 बिजनेस स्कूलों में शुमार किया गया। इसे 24वें पायदान पर रखा गया है। आईआईएम अहमदाबाद को 55वें पायदान पर रखा गया है।


विधायकपुरी थाना श्रेष्ठ : विश्व में सार्वजनिक सुरक्षा, न्याय आैर मानवाधिकार क्षेत्र में काम करने वाली न्यूयार्क की संस्था एटलस ग्लोबल एलियांस ने गुलाबी नगरी जयपुर के विधायकपुरी थाने को इस साल एशिया का सर्वश्रेष्ठ पुलिस थाना चुना है।


धूम्रपान निषेध की उजली तस्वीर : ब्रिाटेन के एक सर्वेक्षण के हवाले से लिखा है कि मदिरापान में ब्रिाटेन के लोग सबसे आगे हैं, जबकि भारतीय सबसे कम शराब पीते हैं। इनमें 27 प्रतिशत लोग तो ऐसे हैं, जिन्होंने शायद ही कभी शराब को हाथ लगाया हो।


महिलाओं की हालत में बेहतर सुधार : सेंटर फॉर वर्क लाइफ पालिसी की दिसम्बर में जारी रिपोर्ट 'बैटल ऑफ फीमेल टैलेंट इन इंडिया" मंे कहा गया है कि 80 प्रतिशत भारतीय महिलाएं अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हर समय कुछ नया कर गुजरने को तैयार रहती हैं। अमेरिकी महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 52 प्रतिशत है।

 
धंुधले अक्स


रिश्वत देने में नंबर वन : बर्लिन की गैर सरकारी एजेंसी ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल (टीआई) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2010 में सबसे ज्यादा रिश्वत अफगानिस्तान, कंबोडिया, कैमरून, भारत, इराक, लाइबेरिया, नाइजीरिया, फलस्तीन, सेनेगल, सियरा लियोन आैर युगांडा में दी गई। भारत में 54 फीसदी लोगों ने अपने कार्यों के लिए रिश्वत दी।


'डर्टी डॉजन" में दूसरे स्थान पर भारत : कंप्यूटर सुरक्षा कंपनी सोफोस ने 29 अप्रैल को अपनी रिपोर्ट में बताया कि भारत दुनिया भर में स्पैम या जंक मेल भेजने वाले 'डर्टी डॉजन" में दूसरे स्थान पर है। 'पांडा लैब्स" के एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया भर में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों के पास जो 'स्पैम" यानी अवांछित ई-मेल आते हैं उनमें दूसरी सबसे ज्यादा हिस्सेदारी भारत की होती है।


भारतीय संसद : हंगामे का नया इतिहास

 पिछले कई सालों की तरह इस साल भी संसद के सत्रों में  हंगामा, व्यवधान  स्थगन का सिलसिला जारी रहा, लेकिन इस महीने 13 तारीख को संपन्न शीतकालीन सत्र का पहला दिन छोड़ कर पूरा की पूरा हंगामे की भेंट चढ़ जाने से भारतीय संसद का एक नया इतिहास लिखा गया।
-आंकड़ें बताते हैं कि शीतकालीन सत्र 1985 में आठवीं लोकसभा से संपन्न पिछले 82 सत्रों में पहला ऐसा सत्र था जिसमें संसद के निचले सदन लोकसभा ने 22 बैठकों के उपलब्ध समय में से मात्र सात घंटे 37 मिनट यानी 5.5 फीसदी आैर राज्यसभा ने मात्र दो घंटे 44 मिनट यानी 2.4 फीसदी समय का ही उपयोग किया, जबकि बाकी का सारा समय 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले पर संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की विपक्ष की मांग के हंगामे की भेंट चढ़ गया।
-इस पूरे साल संसद का अधिकांश कामकाजी समय हंगामे की भेंट चढ़ा तो वहीं सांसदों द्वारा खुद अपने वेतन भत्ते बढाने संबंधी विवादास्पद विधेयक को पारित किए जाने की भी मीडिया में काफी चर्चा रही।
- इस वर्ष राज्यसभा द्वारा महिला आरक्षण संबंधी विधेयक को पारित किया जाना एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। हालांकि लोकसभा में पारित नहीं हो सकने के कारण यह लागू नहीं हो सका।
-संसदीय कामकाज के लिहाज से वर्ष की शुरुआत ही काफी निराशाजनक रही। 22 फरवरी से शुरू होकर सात मई तक चले बजट सत्र में मात्र तीन मंत्रालयों की अनुदानों की अनुपूरक मांगों पर चर्चा की गई, जबकि बाकी सभी मंत्रालयों की अनुदान की अनुपूरक मांगों तथा अन्य विधायी कामकाज को गिलोटिन के जरिए निपटाया गया।
- संसद के दोनों सदनों में बजट सत्र में सरकार ने 27 विधेयकों को पारित कराने की योजना बनाई थी, लेकिन मात्र छह विधेयकों को ही पारित किया जा सका। बजट सत्र में लोकसभा में 12 विधेयक पारित किए गए। इसमें से पांच विधेयकोें पर 15 मिनट से भी कम समय की चर्चा कराई गई। इनके अलावा, 31 अगस्त को समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र में सांसदों के वेतन वृद्धि आैर परमाणु दायित्व विधेयक पारित किए गए। दोनों ही विधेयक काफी चर्चित रहे।
- इस सत्र में सरकार ने दोनों ही सदनों में 35 विधेयक पेश करने की योजना बनाई थी लेकिन 23 विधेयक ही पेश किए जा सके। 33 विधेयकों को पारित कराने की योजना के स्थान पर केवल 21 विधेयकों को पारित किया गया। भारतीय संसद के इतिहास में यह अब तक का सबसे लंबा गतिरोध था।
- 1987 में बोफोर्स मामले में जेपीसी की मांग पर संसद में 45 दिन हंगामा हुआ था, लेकिन तब भी इस बार की तरह संसद का कामकाज पूरी तरह ठप नहीं हुआ था। संसद के इस सत्र के दौरान कायम रहे गतिरोध पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी गहरी चिंता जताते हुए कहा था कि उन्हें संसदीय प्रणाली के भविष्य को लेकर ही चिंता हो रही है।

सोमवार, अक्तूबर 04, 2010

दिल्ली : द बेस्ट

04 अक्टूबर: विश्व पर्यावास दिवस पर विशेष
सीआईआई आैर इंस्टीट्यूट ऑफ कम्पीटेटिवनेस इंडिया के इस सूचकांक के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली रहने की दृष्टि से देश के अन्य महानगरों आैर नगरों की तुलना में शीर्ष पर है।      दिल्ली के बाद क्रमश: मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरू, कोलकाता, हैदराबाद आैर अहमदाबाद का स्थान हैं।
 सूचकांक के अनुसार सामाजिक राजनीतिक माहौल की दृष्टि से मुंबई सबसे ऊपर है। उसके बाद क्रमश: दिल्ली, कोलकाता, गोवा आैर चेन्नई का स्थान आता है। शिक्षा एवं आर्थिक माहौल की दृष्टि से भी दिल्ली सबसे आगे है, जबकि भुवनेश्वर, गुवाहाटी, जयपुर, कानपुर, लखनऊ, पटना आैर वड़ोदरा इस मोर्चे पर सबसे पीछे हैं।
इस वर्ष विश्व पर्यावास दिवस का ध्येय वाक्य 'बेहतर शहर, बेहतर जनजीवन" है। निवास योग्य सूचकांक 2010 के अनुसार जनसांख्यिकी, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा, सुरक्षा, आवास, सामाजिक एवं सास्कृतिक राजनीतिक माहौल, आर्थिक विकास, प्राकृतिक एवं नियोजित पर्यावरण जैसे आठ मानकों के आधार पर 37 शहरों की सूची में दिल्ली शीर्ष पर है।
 सघन आबादी वाली इस दिल्ली में प्रति किलोमीटर क्षेत्र में करीब छह हजार से अधिक लोग (1991 के आंकडे़ के अनुसार) निवास करते हैं। हालांकि दिल्ली का एक चेहरा आैर भी है। यहां बड़ी संख्या में झुग्गी बस्तियां आैर अनधिकृत कॉलोनियां भी हैं, जहां जनजीवन उतना अच्छा नहीं है। इन कॉलोनियांें में बिल्कुल सटे-सटे मकान हैं, सीवर लाइन, पार्क आदि की कमी है।

क्या है पर्यावास दिवस
 पर्यावास दिवस हर वर्ष अक्टूबर के पहले सोमवार को मनाया जाता है। यह दिवस शहरों आैर नगरों की स्थिति तथा सभी को मूल अधिकार खासकर पर्याप्त आश्रय पर बल देता है। यह दुनिया को मानव पर्यावास के भविष्य के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी का भी एहसास दिलाता है। यह दिवस सन 1986 से मनाया जा रहा है।


'पर्यावास दिवस हमें वार्षिक अवसर प्रदान करता है कि हम अपने शहरों आैर नगरों को कैसे सभी के लिए बेहतर स्थान बना सकते हैं"
                                             बान की मून (संयुक्त राष्ट्र महासचिव)

शनिवार, अक्तूबर 02, 2010

बिना घर के गृहमंत्री

जन्मदिवस 02 अक्टूबर पर विशेष
बिना घर के गृहमंत्री       
 ऐसे समय जब नेता सरकारी सुविधाएं हासिल करने के लिए मारामारी करते रहते हैं, आपको यह जानकर अचरज होगा कि देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जब गृहमंत्री थे तो उनके पास अपना मकान तक नहीं था। वह  इलाहाबाद में किराए के मकान में रहा करते थे। इस कारण लोग उन्हें  'बिना मकान का गृहमंत्री'  कहा करते थे।

दो अक्टूबर को 1904 को वाराणसी के मुगल सराय कस्बे में एक किसान परिवार में शास्त्री जी का जन्म हुआ। उनके पिता शारदा प्रसाद एक गरीब अध्यापक थे। बाद में उन्होंने इलाहाबाद के राजस्व विभाग में कलर्क  के रूप में काम किया। उनकी माता का नाम राम दुलारी था। शास्त्री जी के बचपन का नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। जब वह एक वर्ष के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। उनका आैर उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी मां दुलारी देवी ने किया। उनके दादा हजारीलाल उन्हें प्यार से 'नन्हें" पुकारते थे। लालबहादुर बचपन से ही सच्चे, ईमानदार आैर जिम्मेदार प्रवृत्ति के थे।

एक बार की घटना है, जब वह छह वर्ष के थे तो उनके मित्र एक बाग में फल तोड़ने के लिए उन्हें भी साथ ले गए, जब उनके मित्र फल तोड़ रहे थे तो बगीचे का चौकीदार आ गया। इस पर पेड़ पर चढे़ उनके सभी मित्र भाग गए, लेकिन वह वहीं खडे़ रहे। चौकीदार ने उन्हें पकड लिया। उन्हें पीटने लगा। तब उन्होंने कहा, मुझे मत मारों मैं अनाथ हूं। मैंने कुछ नहीं किया है। मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं। मैंने तुम्हारे बाग को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है। इस पर चौकदार ने कहा, मैं जानता हूं कि तुम झूठ नहीं बोल रहे हो, लेकिन तुम्हें अपने व्यवहार में सुधार करना चाहिए। इससे दूसरों को कष्ट न पहुंचे।

रेलवे स्कूल में चौथी कक्षा तक पढ़ाई के बाद शास्त्री ने बनारस के हरिश्चंद हाई स्कूल में शिक्षा आरम्भ की। अपनी पढ़ाई के लिए उन्हें गंगा नदी के पार जाना पड़ता था। एक बार नाव के किराए के लिए पैसे नहीं होने पर शर्मिदंगी से बचने के लिए अपने मित्रों को बिना बताए नाव के जाने के बाद उन्होंने गंगा नदी को तैरकर पार किया।   शास्त्री जी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से इतना प्रभावित थे कि वह उनका भाषण सुनने के लिए बनारस से 50 मील दूर गांव तक जा पहुंचे। तिलक के भाषण पर उनके ह्मदय पर गहरा प्रभाव पड़ा।
  1915 में महात्मा गांधी का भाषण सुनने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वह अपना पूरा जीवन देश की सेवा में लगा देंगे। लाल बहादुर का जुड़ाव शुरू  से ही गांधी जी के अहिंसा आंदोलन के साथ रहा आैर वह अंत तक कांग्रेस से जुडे़ रहे। जब वह 17 वर्ष के थे तो गांधी जी के आह्वान 'अंग्रेजों के सरकारी स्कूल कालेजों का बहिष्कार करो" पर उन्होंने स्कूल छोड़ दिया, जबकि उनकी माता आैर संबंधियों ने उन्हें स्कूल न छोड़ने की सलाह दी क्योंकि उनका काशी विद्या पीठ में चौथा वर्ष था। वह विद्यालय नहीं गए। इस विरोध के कारण उन्हें गिरफ्तार करने के बाद चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। 1930 में जब गांधी जी ने 'नमक सत्याग्रह" शुरू   किया तो उसमें शास्त्री जी की मुख्य भूमिका रही। वह गांधी जी के स्वातंत्र्य वीरों की सेना के एक महान सेनानायक थे। 
     1928 में काशी विद्यापीठ से लाल बहादुर को 'शास्त्री" की डिग्री मिली। तब से वह श्रीवास्तव की जगह शास्त्री कह कर पुकारे जाने लगे। वह 1921 में लाला लाजपतराय द्वारा गठित 'पीपुल्स सोसायटी" के सदस्य भी रहे। सोसायटी का उद्देश्य युवाओं को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए प्रेरित करना था। बाद में उन्हें सोसायटी का अध्यक्ष बनाया गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा।
1927 में शास्त्री जी का विवाह ललिता देवी से हुआ। उन्हें अपने ससुर से एक चरखा आैर कुछ गज खादी उपहार स्वरूप मिली। शास्त्री को किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। उनकी गुरू  नानक देव में विशेष रू चि थी। शास्त्री जी को पढ़ने के अलावा क्रिकेट देखने आैर लिखने का भी शौक था। उन्होंने मैडम क्यूरी की जीवनी का हिन्दी में अनुवाद भी किया आैर कई यूरोपीय लेखकों की दार्शनिक आैर सामाजिक किताबों का भी अध्ययन किया।
शास्त्री जी छोटे कद के एक साधारण आैर सरल बोलचाल वाले ईमानदार व्यक्ति थे। इसी तरह उनका पहनावा भी साधारण था। उन्होंने परिवहन, रेलवे, पुलिस आैर गृह मंत्रालय आदि मंत्रालयों में जिम्मेदारीपूर्वक मंत्री के रूप में काम किया। वह राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्होंने परिवहन मंत्री के अपने कार्यकाल में देश की पहली महिला कंडक्टर की नियुक्ति की।
शास्त्री ने पुलिस मंत्री रहते हुए लाठीचार्ज आैर फायरिंग को प्रतिबंधित किया। इसके लिए उन्हें बहुत ख्याति मिली। उन्होंने ही पुलिस को खाकी का ताज दिया। यह ताज पुलिस को कैसे मिला। इस पर एक घटना है। एक बार शास्त्री जी क्रिकेट मैच देखने कानपुर गए तो एक व्यक्ति ने पुलिस द्वारा पहनी गई लाल पगड़ी पर आपत्ति की, जिसके परिणामस्वरू प उन्होंने उस व्यक्ति से वादा किया कि वह इस विषय पर ईमानदारी पूर्वक विचार करेंगे। कुछ समय बाद पुलिस को लाल की जगह खाकी पगड़ी दी गई।
शास्त्री जी के रेल मंत्री के कार्यकाल में यात्रियों को प्रथम, द्वितीय आैर तृतीय श्रेणी की सुविधा प्राप्त हुई। उन्होंने रेलवे की तरक्की के लिए भरसक प्रयास किए। जब तमिलनाडु आैर महबूब नगर में रेल दुर्घटना हुई तो उन्होंने इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे दिया।  प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू  ने उनका इस्तीफा स्वीकार करने से मना कर दिया, लेकिन वह नहीं माने आैर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार किया।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू  के निधन के बाद कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी की जुबान पर यही प्रश्न था कि नेहरू  के बाद अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। कांग्रेस पार्टी ने लाल बहादुर शास्त्री को अपना नेता चुन इस प्रश्न को विराम दिया। उनके चरित्र को देखते हुए सभी इस निर्णय पर एकमत थे कि शास्त्री जी ही ऐसे व्यक्ति है. जो देश का सही नेतृत्व कर सकते है। शास्त्री जी ने स्वयं पर कभी दबाव महसूस नहीं किया। वह कहते थे कि 'मैं एक साधारण व्यक्ति हूं न कि कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति।"
नेहरू  जी के बाद उन्होंने भारतीय गणतंत्र के दूसरे प्रधानमंत्री के तौर पर कार्य करते हुए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। उन्होंने सेना को ऐसे आधुनिक हथियार दिए जाने की वकालत की, जिन्हें वह युद्ध के समय केवल लड़ाई के लिए ही नहीं अपितु अपनी रक्षा के लिए भी प्रयोग कर सके। शास्त्री जी ने 1962 आैर 1965 के युद्ध के समय सेना का मनोबल बढ़ाया। देश को 'जय जवान, जय किसान" का नारा दिया। पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के लाहौर शहर तक कब्जा कर लिया। जिसे बाद में ताशकंद समझौते के तहत पाकिस्तान को लौटाया दिया गया। इसी समझौते के बाद ताशकंद में 10 जनवरी 1966 में अचानक उनका निधन हो गया। उन्हें 'भारत रत्न" से भी सम्मानित किया गया।

मंगलवार, सितंबर 28, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव


बिहार विधानसभा   चुनाव    

बिहार में 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए छह चरणों में चुनाव होंगे। इनकी शुरूआत 21 अक्टूबर से होगी।
     



विधानसभा :  कुल 243  विधायकों मे 110 दागी 


 विधायकों पर आपराधिक आरोप

शनिवार, सितंबर 25, 2010

अव्यवस्था की भेंट चढ़े गजराज

कुछ खास

रेलवे पर क्षुब्ध हुए पर्यावरण मंत्री : पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी रेल पटरियों पर बृहस्पतिवार को हुई सात हाथियों की मौत से क्षुब्ध पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि वह जल्द ही रेलवे बोर्ड से मिलेंगे, ताकि हाथियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।  उन्होंने घटना पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि विगत समय में वह रेल मंत्री ममता बनर्जी आैर रेलवे बोर्ड के अधिकारियों को कई पत्र लिख चुके हैं। ऐसे हादसों को टालने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर चर्चा कर चुके हैं।
 टास्क फोर्सकी सिफारीश :  हाल में पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट में हाथी को राष्ट्रीय पशु धरोहर का दर्जा देने तथा एक जंगल से दूसरे जंगल में उनके आने जाने के रास्तों की रक्षा करने के लिए कदम उठाने की सिफारिश की गई है।
   

कारण तथा निदान
 -पश्चिम बंगाल के  प्रधान मुख्य वन संरक्षक अतनु राहा ने कहा कि मीटर गेज को ब्राड गेज में बदले जाने के बाद हाथियों के ट्रेन से कुचलकर मरने की घटनाएं बढ़ गई हैं। दरअसल जब मीटर गेज था तब कुछ ट्रेनें चलती थी आैर हाथियों को उनके गुजरने का समय मालूम होता था, लेकिन गेज परिवर्तन के बाद हर समय मालगाडियां गुजरती रहती है, जिससें हाथी संशय में पड़ जाते हैं आैर ऐसे हादसे होते हैं।
-गेज परिवर्तन के खिलाफ वर्ष 2001 में जनहित याचिका दायर करने वाले डब्ल्यूपीएसआई के पूर्वी क्षेत्र के निदेशक कर्नल एस बनर्जी ने कहा कि उनकी आशंका अब सही साबित हो रही है। हाथियों को ऐसे हादसों से बचाने के लिए उपरिगामी ट्रेन का सुझाव आया है।
-संयोग से जलपाईगुड़ी क्षेत्र हाथी गलियारे के रूप में घोषित है आैर हाथियों को सुरक्षित रूप से गुजरने देने के लिए रेलवे से ट्रेनों की गति धीमी करने जैसे विशेष कदम उठाने को कहा गया है।
23 वर्षों में 150 गजराज चढ़े भेंट

    

    










 राज्य               शिकार हुए गजराज
    असम   :            54
    प. बंगाल :        39
       उत्तराखंड :    21
        झारखंड :     15
    तमिलनाडु :   09
   उत्तर प्रदेश :  06
           केरल  :   03
         उड़ीसा :      03
-हादसे जनवरी से जून के बीच रात के समय ज्यादा हुए
-जब जंगली जानवर भोजन-पानी की तलाश में निकलते हैं
-जंगलों में रात के समय ट्रेनों की गति कम रखनी चाहिए
-घटनाओं को टालने के लिए ट्रेन के ड्राइवर, गार्ड आैर मुसाफिरों को भी संवेदनशील बनाने की जरूरत
(रुाोत :  पर्यावरण मंत्रालय की 'ऐलीफेंट टास्क फोर्स" की नवीनतम रिपोर्ट)

कमेंट........
आखिर कौन है जिम्मेदार ?  एक साथ सात हाथियों की रेलवे पटरियों पर मौत की आवाज राजनीतिक गलियारों में नहीं सुनाई पड़ी।  पश्चिम बंगाल की जलपाइगुड़ी की घटना पर किसी ने हो हल्ला नहीं किया। पशुओं पर दया दिखाने वाली मेनका गांधी के सूर भी इस बार नहीं सुनाई पड़े। राजनीतिक दल भी मौन हैं, क्यों कि इससे उनको कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिलने वाला है। फिर वे अपनी मेहनत आैर ऊर्जा क्यों अनायास बेकार करते। फिलहाल पर्यावरणविदों ने जलपाईगुड़ी की घटना को हत्या करार दिया है आैर रेलवे के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की है

शुक्रवार, सितंबर 24, 2010

विवाद के 157 साल

कुछ खास
    

विवाद की जड़ 
1528 :  मुगल बादशाह बाबर ने उस भूमि पर एक मस्जिद बनवाई। हिंदुओं का दावा है कि वह भगवान राम की जन्मभूमि है आैर वहां पहले एक मंदिर था।
1853 : विवादित भूमि पर सांप्रदायिक हिंसा संबंधी घटनाओं का दस्तावेजों में दर्ज पहला प्रमाण।
1859 : ब्रिाटिश अधिकारियों ने एक बाड़ बनाकर पूजास्थलों को अलग-अलग किया। अंदरूनी हिस्सा मुस्लिमों को आैर बाहरी हिस्सा हिन्दुओं को मिला।
1885 : महंत रघुवीर दास ने एक याचिका दायर कर रामचबूतरे पर छतरी बनवाने की अनुमति मांगी, लेकिन फैजाबाद की जिला अदालत ने अनुरोध खारिज किया।


देश का सबसे बड़ा मुकदमा
-1950, 16 जनवरी को मुकदमें की प्रक्रिया शुरू ।
-21 साल चली सुनवाई।
-40 अधिवक्ताओं ने इस मामले में जिरह की। (पश्चिम बंगाल के पूर्व सीएम आैर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ शंकर रे, भाजपा के वरिष्ठ नेता तथा सुप्रीम कोर्ट के वकील रवि शंकर प्रसाद भी शामिल)
-89 गवाहों के 14,036 पृष्ठ के बयान दर्ज हुए। 
-इस दौरान 13 बार विशेष पूर्णपीठ तथा 18 न्यायाधीश बदले गए।
चार अहम बिंदु
1-विवादित धर्मस्थल पर मालिकाना हक किसका है ?
2-श्रीराम जन्मभूमि वहीं है या नहीं ?
3-क्या 1528 में मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी थी ?
4-यदि ऐसा है तो यह इस्लाम के परंपराओं के खिलाफ है या नहीं ?
गुम्बद के नीचे में रखे गए रामलला
-1949 : 22/23 सितम्बर की रात में विवादित ढांचे के तीन गुम्बदों में से बीच वाले में रामलला की मूर्ति रख दी गई।
-1950 : 16 जनवरी  को रामलला की पूजा अर्चना के लिए को गोपाल सिंह ने फैजाबाद की जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया।
-कोर्ट ने पूजा अर्चना की इजाजत दे दी। इसके साथ ही कोर्ट ने वहां रिसीवर भी नियुक्त कर दिया।
 -1959 : निर्मोही अखाडे़ ने रिसीवर की व्यवस्था समाप्त कर विवादित स्थल को उसे सौंपने की मांग की।
-1961 : सुन्नी वक्फ बोर्ड आैर मोहम्मद हाशिम अंसारी ने रामलला की मूर्ति हटाने के लिए वाद दायर किया।
-1989 : देवकी नन्दन अग्रवाल ने विवादित धर्मस्थल को रामलला विराजमान की संपत्ति घोषित करने की याचिका हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में दाखिल की।
-1989 : फैजाबाद में चल रहे सारे मामलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के हवाले किया गया।
-सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने अपने पक्ष से 36 गवाहों को पेश किया। इसमें आठ बहुसंख्यक सुमदाय से थे।
-वक्फ बोर्ड की तरफ से सर्वाधिक 288 पृष्ठ की गवाही सुरेश चन्द्र मिश्र की रही, जबकि सबसे कम 64 पृष्ठ में रामशंकर उपाध्याय ने अपना बयान दर्ज कराया।
मामले में नया मोड़
-1986 : 1 फरवरी  को जिला जज कृष्ण मोहन पाण्डेय ने विवादित ढांचे के गेट पर लगे ताले को खोलने का आदेश दिया।
-1986 : 3 फरवरी  को अंसारी ने हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में इस आदेश को  चुनौती दी।
-1992 : 6 दिसम्बर को विवादित मस्जिद ढहाई गई। देश भर में सांप्रदायिक दंगे, 2000 से अधिक लोगों की जानें गर्इं।
अधिग्रहण के खिलाफ मुकदमा
-1993 : 7 जनवरी  को केंद्र ने 67 एकड़ से अधिक जमीन का अधिग्रहण कर लिया।
-अधिग्रहण के इस अधिनियम के खिलाफ सेन्ट्रल सुन्नी बोर्ड, अक्षय ब्राह्चारी, हाफिज महमूद अकलाख आैर जामियातुल उलेमा-ए-हिन्द ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
-हाईकोर्ट ने सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट भेज दिया।
-1994 : 24 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले से जुड़े सन्दर्भ को राष्ट्रपति को वापस भेज दिया।
-1995 : जनवरी में हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में फिर से  सुनवाई शुरू हुई।
-2002 : मार्च में मामले को जल्दी निपटाने के लिए हाईकोर्ट का प्रतिदिन सुनवाई करने का फैसला।
-2003 : 5 मार्च का अधिग्रहीत परिसर में पुरातात्विक खुदाई के आदेश दिए।
-22 अगस्त को पुरातत्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी। खुदाई में प्राचीन मूर्तियों आैर कसौटी के पत्थरों के अवशेष मिलने का दावा।
-2006 : 11 अगस्त को मुस्लिम पक्ष की ओर से पुरातात्विक रिपोर्ट के खिलाफ आपत्तियों के सम्बंध में गवाहियों का क्रम समाप्त हुआ।
-2010 : 26 जुलाई को सुनवाई पूरी हुई। कोर्ट ने दोनो पक्षों के वकीलों को बुलाकर सुलह-समझौते से निपटाने का अवसर दिया।
-15 सितम्बर : इस सम्बंध में रमेश चन्द्र त्रिपाठी की अर्जी पेश।
-17 सितम्बर : न्यायमूर्ति एसयूखान आैर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने त्रिपाठी की याचिका खारिज की। उन पर हर्जाने के रूप में 50 हजार रुपए जुर्माना ठोक दिया।
-पीठ के तीसरे न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने दोनों की राय से अपने को अलग किया। श्री शर्मा ने हर्जाने की राशि तीन हजार कर दी तथा पक्षकारों को सुलह के लिए 23 सितम्बर तक का समय दिया।
-21 सितम्बर : त्रिपाठी ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने याचिका पर सुनवाई से इनकार किया। याची को दूसरी खंडपीठ में जाने की सलाह दी।
-दूसरी पीठ ने हाईकोर्ट के 24 सितम्बर को फैसला सुनाए जाने के आदेश को 28 सितम्बर तक स्थगित कर दिया।


17 साल बाद लिब्राहान आयोग की रिपोर्ट
1992 :  16 दिसंबर को विवादित ढांचे को ढहाए जाने की जांच के लिए न्यायमूर्ति लिब्राहान आयोग का गठन। छह माह के भीतर जांच खत्म करने को कहा गया।
2009 : जून में 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस बीच आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया।

शुक्रवार, सितंबर 17, 2010

..जब 'छोटे लोहिया' से परास्त हुए वीपी

इतिहास से दिलचस्प मुकाबला

लोकसभा चुनाव के कुछ उन मुकाबलों में जिन्हें रोचक कहा जा सकता है, 'छोटे लोहिया' की राजा मांडा से भिडंत भी शामिल है. इसमें 'छोटे लोहिया' कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र ने वीपी सिंह को परास्त किया था. यह 1977 का आम चुनाव था. इलाहबाद संसदीय सीट से प्रमुख मुकाबला कांग्रेस और भालोद के बीच था. वीपी कांग्रेस के उम्मीदवार थे. 'छोटे लोहिया' ने राजा को करीब 90 हजार मतों के अंतर से पराजित किया. जनेश्वर को 190697 और वीपी को 100709 मत मिले. दरअसल, 1977 में कांग्रेस की फिजां गड़बड़ थी. जनता पार्टी की लहर थी. वीपी चुनाव हार गए. वीपी के राजनीतिक करियर की शुरुआत छात्र राजनीति से हुई. 1947 में वे इलाहाबाद विवि छात्रसंघ के उपाध्यक्ष चुने गए. स्वराज भवन में उनका आना-जाना   नेहरू के समय से ही था. तब उनकी पहचान बतौर 'राजा मांडा' थी. वह 1969 में विधानसभा के लिए चुने गए. 1971 में पहली बार पांचवी लोकसभा के लिए इलाहाबाद के फूलपुर क्षेत्र से निर्वाचित हुए. 1976 में पहली बार वे केंद्र में मंत्री बने. 1980 में वे फिर लोकसभा के लिए चुने गए. बीच में ही उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने उप्र का मुख्यमंत्री बनाने का एलान किया. उस समय इंदिरा गाँधी प्रधानमन्त्री थीं. इंदिरा जी की मौत के बाद 1984  के आम चुनावों में कांग्रेस की बंपर मतों से जीत हुई. राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री हुए. वीपी सिंह वाणिज्य, वित्त और बाद में रक्षामंत्री बने. कालान्तर में राजीव से अनबन होने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अलविदा कर लिया. 1988 में इलाहाबाद सीट पर उपचुनाव हुआ. वीपी स्वतंत्र उम्मीदवार लड़े और विजयी हुए. 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर जनता दल का गठन किया. कांग्रेस के लिए संकट बने. जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. केंद्र में जनता दल की सरकार बनी. वीपी सिंह देश के दसवें प्रधानमन्त्री बने.

रविवार, सितंबर 12, 2010

...आक्रोश की बलि चढ़े बलिराम

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलिराम भगत भी जनता के आक्रोश ने नहीं बचे. छठी  लोकसभा के चुनाव में उन्हें बिहार की आरा संसदीय सीट से पराजय का सामना करना पड़ा. वह कुल छह बार लोकसभा के लिए चुने गए. 1952 में इस क्षेत्र से वह पहली बार चुनाव जीते. इसके बाद से वह लगातार दूसरी,  तीसरी,  चौथी और पांचवी लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए. जनता लहर ने उन्हें 1977 में हरा दिया. उनका मुकाबला लोकदल के प्रत्याशी चंद्रदेव वर्मा से था. लोकदल को 3,23,913 और कांग्रेस के पक्ष में 1,13,036 मत पड़े. भगत 21 हजार से ज्यादा मतों के अंतर से पराजित हुए. बलिराम भगत की उनके लम्बे राजनीतिक करियर में यह पहली हार थी. 1980 के आम चुनाव में उन्हें इस क्षेत्र से दोबारा पराजय का सामना करना पड़ा था, लेकिन बिहार की सीतामढ़ी संसदीय सीट से उपचुनाव जीत कर वे सदन पहुचने में कामयाब रहे.
1939 में मात्र 17 साल की उम्र में बलिराम भगत कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए. 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वह कॉलेज की शिक्षा छोड़, स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए.  1944 में अखिल भारतीय विद्यार्थी कांग्रेस (एआईएससी) की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही. 1946 में वह बिहार में एआईएससी के महासचिव बने. 1950  में भगत पहली बार प्रांतीय संसद के लिए निर्वाचित हुए. वह पहली बार 1956 में पंडित नेहरु के मंत्रिमंडल में शामिल हुए और वित्त उपमंत्री बने. वह लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की कैबिनेट में भी कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. जनवरी 1976 में वह पांचवी लोकसभा के स्पीकर चुने गए. जीएस ढिल्लन के त्यागपत्र के बाद बलिराम भगत स्पीकर निर्वाचित हुए. उस समय देश में इमरजेंसी लग चुकी थी. बतौर लोकसभा अध्यक्ष उनका 14 माह का कार्यकाल एतिहासिक था. बतौर स्पीकर सांसदों के 'कालिंग अटेंशन'  के समय को उन्होंने घटाकर तीन- चार मिनट किया. इससे पहले इसकी अवधि 30 से 35 मिनट की थी.

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

कमल से पिट गए थे कमलनाथ

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले



इंदिरा गाँधी के तीसरे बेटे  को भी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था. यह तीसरा बेटा और कोई नहीं, बल्कि वरिष्ट कांग्रेसी नेता कमलनाथ हैं. इंदिरा गाँधी ने 1980 में मध्यप्रदेश  के छिंदवाड़ा जिले में एक जनसभा में कमलनाथ को अपना तीसरा बेटा कहा था. देश में सातवीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. इस चुनाव में कमलनाथ छिंदवाड़ा संसदीय सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी थे. यह उनका पहला चुनाव था. कमलनाथ चुनाव जीत गए. अगर 1997 के उपचुनाव को छोड़ दिया जाए तो इस सीट से उनकी जीत का सिलसिला कभी नहीं थमा. यहाँ से वे लगातार साथ बार चुनाव जीत चुके हैं. हवाला काण्ड में नाम आने के कारण 1996 में कमलनाथ यहाँ से चुनाव नहीं लड़ सके. इस सीट से उनकी पत्नी अलका उम्मीदवार थीं. अलका चुनाव जीतीं और यह सीट कांग्रेस के खाते में गयी. 1997 में अलका ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद यहाँ उपचुनाव हुए. इसमें कमलनाथ का मुकाबला कमल से था. सुन्दरलाल पटवा भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी थे. मुकाबला दिलचस्प था. लोगों के यहीं के विपरीत चुनाव के नतीजे आये. कमल ने कमलनाथ को परास्त कर दिया. 37 हजार से ज्यादा मतों के अंतर से कमलनाथ पराजित हुए. हालांकि, 1998 के आम चुनावों में कमलनाथ यहाँ से फिर निर्वाचित हुए. फिर वे लगातार चुने गए. १९९१ में वे केंद्र में पीवी नर्सिंघ्राव की सरकार में पहली बार मंत्री बने थे जब मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे. आज मनमोहन सिंह सरकार में कमलनाथ वाणिज्य और ओद्योगिक मंत्री हैं.
छिंदवाड़ा में कांग्रेस का डंका: देश में ऐसी कम ही संसदीय सीटें होगी, जहाँ से कांग्रेस को कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा हो. मात्र एक उपचुनाव के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मध्यप्रदेश का छिंदवाड़ा क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जहाँ से कांग्रेस को कभी पराजय का मुह नहीं देखना पड़ा. यह सही मायने में कांग्रेस का गढ़ है. अब तक 14 आम चुनावों में इस सीट से कांग्रेस को कभी शिकस्त नहीं मिली. यहाँ तक कि 1977 की जनता लहर में भी इस सीट से कांग्रेस का उम्मीदवार विजयी हुआ था. 

जब बहुगुणा से हारीं शीला

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
  1977 के लोकसभा चुनाव में लखनऊ संसदीय सीट पर मुकाबला दिलचस्प था. यह मुकाबला भी जो दो दिग्गजों के बीच था. शीला कौल कांग्रेस की प्रत्याशी थीं. हेमवती नंदन बहुगुणा भारतीय लोकदल के उम्मीदवार थे. 1957 से 1971 यानी दूसरी से पांचवी लोकसभा चुनावों तक इस क्षेत्र से तीन बार कांग्रेस की विजय हुई थी. पांचवी लोकसभा के लिए शीला कौल यहाँ से चुनी गयीं थीं. लखनऊ की जनता के लिए शीला कौल अनजान नहीं थीं. विपक्ष की निगाह शीला और लखनऊ संसदीय सीट पर थी. इस सीट पर विपक्ष की नजर इसीलिए भी थी क्योकि शीला और इंदिरा गाँधी के पारिवारिक रिश्ते थे. वे गांधी परिवार के काफी नजदीक थीं. विपक्ष का एकमात्र मकसद इस सीट से शीला को परास्त करना था. उनको हराने के लिए उसे एक मजबूत उम्मीदवार की तलाश थी. राजनीति का कुशल खिलाडी होने के कारण बहुगुणा  को शीला के खिलाफ लखनऊ से उतारा गया. विपक्ष अपने मिशन में सफल रहा. बहुगुणा को 242362 और शीला को 77017 मत मिले. करीब 165345 मतों के अंतर से शीला पराजित हुईं. लोकसभा चुनाव के पहले तक शीला की पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में थी. 1971 में वे कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के रूप में पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुईं. 1980 में सातवीं लोकसभा के लिए लखनऊ सीट से विजयी हुईं. केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई और शीला पहली बार केंद्रीय मंत्री बनीं. वे दो बार रायबरेली संसदीय सीट से भी निर्वाचित हुईं. 1995 में वे हिमाचल प्रदेश की गवर्नर बनीं. बहुगुणा ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ट्रेड यूनियन से की थी. 1952 में वह पहली बार इलाहाबाद के करछना विधानसभा क्षेत्र से चुने गए. 1960  में गोविन्द बल्लभ पन्त के मुख्यमंत्री रहते वे पहली बार उत्तर  प्रदेश में उपमंत्री बने. 1967  में वे उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मंत्री और 1971 में केंद्र में संचार राज्य मंत्री बनाये गए.

मंगलवार, अगस्त 31, 2010

babari

DEMOLITION OF BABRI MASJID

Indian Struggle for freedom (Original Video) Top Viewed

Gandhi interview philosphy and ideology

Mahatma Gandhi rare pictures collection

tribute to Mohammad Ali Jinah

Quaid-e-azam Welcome to in Pakistan (Original)

Quaid-i-Azam Muhammad Ali Jinnah - Aug 15, 1947

A New India August 15 1947

शनिवार, अगस्त 28, 2010

जब एमएम सहगल को चित किया सुचेता ने

इतिहास से दिलचिस्प मुकाबले

आजादी के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में नई दिल्ली संसदीय सीट पर कांग्रेस की हार हुई. पंडित नेहरु ने शायद ही कल्पना की हो कि यह महत्वपूर्ण सीट उनके हाथ से निकल जायेगी. कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका था. 1952 में नई दिल्ली क्षेत्र में मुकाबला दिलचस्प था. एक तरफ कांग्रेस थी तो दूसरी और सुचेता कृपलानी. एमएम सहगल को कांग्रेस ने चुनाव मैदान में उतारा था. उनकी दिल्ली में अच्छी पकड़ थी. सुचेता कृपलानी ' किसान मजदूर प्रजा पार्टी' (केएमपीपी) की उम्मीदवार थीं. उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया था. दिल्ली सुचेता के लिए अनजान नहीं थी. सुचेता कांग्रेस प्रत्याशी पर भारी पड़ीं. चुनाव में केएमपीपी को 47735 और कांग्रेस को 40064 मत मिले. सहगल की 7671 मतों के अंतर से पराजय हुई. हालांकि, दिल्ली की अन्य दो सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई.

शुक्रवार, अगस्त 27, 2010

यह हार थी बड़ी

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले

जीत ही नहीं कई बार हार भी बड़ी होती है. 14वी लोकसभा चुनाव में शिवराज पाटिल का महाराष्ट्र की लातूर संसदीय सीट से परास्त होना एक बड़ी घटना थी. यहाँ पहली बार कमल से पंजा पराजित हुआ. यहाँ तक कि 'कमंडल की लहर' भी लातूर में बेअसर हुई थी. इस सीट से उस समय भी कांग्रेस उम्मीदवार शिवराज पाटिल की जीत हुई पर 2004 में यहाँ शिवराज को हार का सामना करना पड़ा जो इसके पहले सात बार इस क्षेत्र से ही लोकसभा में पहुँच चुके थे. 1962 से इस संसदीय क्षेत्र से 11 दफा कांग्रेस प्रत्याशी की जीत हुई है. 2004 की हार के पहले 1977 के आम चुनाव में पहली बार कांग्रेस विरोधी लहर में ही यहाँ पंजे की हार हुई थी.
लातूर कांग्रेस का गढ़ रहा है. 2004 के आम चुनाव में यहाँ कोई लहर नहीं थी. निश्चित रूप से कांग्रेस की गणना में यह उनकी सुरक्षित जीत वाली सीट रही होगी. आखिर हो भी क्यों न, यहाँ से कांग्रेस के प्रमुख सेनापति शिवराज पाटिल चुनाव लड़ रहे थे लेकिन चुनाव नतीजो से सब दंग रह गए. कांग्रेस ने लातूर सीट खोई. भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार रूप ताई पाटिल ने उन्हें 30551 मतों से पराजित किया. कांग्रेस प्रत्याशी शिवराज को  372990 और भाजपा को 403541 मत मिले.
14वीं लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. एनडीए की सरकार बनी. मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री बने. शिवराज पाटिल को भी मनमोहन के कुनबे में शामिल किया गया. जुलाई, 2004 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया. वह यूपीए सरकार में गृहमंत्री बने. मुंबई में आतंकी हमलों के बाद वे अपने परिधानों के कारण सुर्ख़ियों में आये. इस घटना में कांग्रेस की किरकिरी हुई. नतीजतन उन्हें गृहमंत्री का पद गवाना पड़ा. पाटिल के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई. 1972 में पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और कई दफा महत्वपूर्ण पद पर रहे. 1980 के दशक में उन्होंने केंद्रीय राजनीति में प्रवेश किया. पहली बार सातवीं लोकसभा में चुनाव जीते और इंदिरा गाँधी की सरकार में रक्षा राज्यमंत्री बने. जब-जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही तब-तब वे प्रमुख पदों पर रहे. 1999 के आम चुनाव के बाद उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली.

मंगलवार, अगस्त 24, 2010

जब 'प्रियदर्शनी' से परास्त हुईं राजमाता

इतिहास से दिलचस्प मुकाबला
यह एक बड़ी जंग थी. मैदान था रायबरेली. पूरे देश की निगाहें इस पर टिकी थीं. लोगो की उत्सुकता नतीजे में थी. जी हाँ, यह 1980 का आम चुनाव था. जनता लहर का वेग ख़त्म हो चुका था और कांग्रेस एक बार फिर अपनी खोई हुई साख को पाने की फिराक में थी. रायबरेली में मुकाबला दो महिला दिग्गजों की आन- बान-शान का था. यह भिडंत 'प्रियदर्शनी' और 'राजमाता' विजयाराजे सिंधिया के बीच थी. एक देश की पहली महिला प्रधानमन्त्री और पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी, तो दूसरी ग्वालियर की राजमाता. इस जंग में 'प्रियदर्शनी' ने राजमाता को धूल चटा दी. लोकसभा चुनावों में दोनों की जीत-हार के अपने-अपने रिकॉर्ड हैं. इंदिरा को अपने राजनीतिक करियर में केवल एक बार ही हार का सामना करना पड़ा जबकि राजमाता संसदीय चुनाव में दो बार हारीं. नेहरु के निधन के बाद 1964 में लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में इंदिरा गाँधी पहली बार मंत्री बनीं. 1966 में उन्हें प्रधानमन्त्री होने का गौरव हासिल हुआ. राजमाता पहली बार 1957 में दूसरी लोकसभा के लिए चुनी गयीं. उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस से हुई. दो लोकसभा चुनावों में गुना और ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से वह कांग्रेस की प्रत्याशी थीं. चौथे आम चुनाव के पूर्व उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. 1967 के लोकसभा चुनाव में वह निर्दलीय उम्मीदवार  के रूप में विजयीं हुईं. बाद में वह जनसंघ में शामिल हो गयीं. जब जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में तब्दील हुआ, तब वह उसमे आ गयीं. मरते दम तक उन्होंने भाजपा नहीं छोड़ी. 1980 के आम चुनाव में राजमाता को अपनी जीत का पक्का यकीन था. उन्हें विश्वास था कि जनता इमरजेंसी के काले अध्याय को बिसरा नहीं पायी होगी. 1977  के चुनाव में इंदिरा गाँधी रायबरेली से चुनाव हार चुकी थीं. बावजूद इसके, वह यहाँ से फिर चुनाव लड़ रही थीं. रायबरेली कांग्रेस का गढ़ रहा है. आजादी के बाद यहाँ से लोकसभा के लिए हुए 15 चुनावों में से 13 बार कांग्रेस की विजय हुई है. दो बार ही गैर कांग्रेसी उम्मीदवार को सफलता मिली है. इंदिरा गाँधी को विश्वास था कि रायबरेली की जनता उनका साथ जरूर  देगी. इस क्षेत्र से इंदिरा के पति फ़िरोज़ गाँधी पहली लोकसभा में चुनाव जीते थे. 1980 में इंदिरा गाँधी के पक्ष में दूसरी बात यह गयी की 18 माह की जनता पार्टी की सरकार से लोग उकता चुके थे. विपक्ष बिखर चुका था. जनता कांग्रेस को ही विकल्प के रूप में देख रही थी. इंदिरा गाँधी चुनाव जीतीं और फिर केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी.

रविवार, अगस्त 22, 2010

चरण पर बेअसर रही 1984 की लहर

इतिहास से दिलचस्प मुकाबला

1984 में इंदिरा जी की हत्या से कांग्रेस और राजीव गाँधी के प्रति पैदा हुई सहानुभूति के लहर बागपत में बेअसर रही. यह चौधरी चरण सिंह का गढ़ रहा जिसकी फसल उनके बेटे अजीत सिंह भी काट रहे हैं. आठवीं लोकसभा चुनाव में पूरे देश में कांग्रेस की वह लहर दिखी जो इससे पहले जनता पार्टी के छिन्न- भिन्न हो जाने पर 1980 में भी नहीं बन सकी थी. बावजूद इसके, उत्तर प्रदेश की बागपत संसदीय सीट से चरण सिंह निर्वाचित हुए. उस समय प्रदेश में रहीं 85 सीटों में से मात्र दो सीटें ही विपक्ष की झोली में गयीं थीं. शेष 83 सीटों पर कांग्रेस का कब्ज़ा था. लोकसभा की 543 सीटों में 415 कांग्रेस को मिली थीं. 1977 के बाद से यहाँ हुए लोकसभा चुनावों में अब तक केवल एक बार ही लोकदल की पराजय हुई है.
1984 में बागपत संसदीय क्षेत्र से मुकाबला कांग्रेस और लोकदल के बीच था. कांग्रेस के उम्मीदवार महेश चन्द्र थे. लोकदल से चौधरी चरण सिंह प्रत्याशी थे. बागपत की जनता ने चौधरी का साथ दिया. 85674 मत के अंतर से चरण सिंह विजयी हुए. महेश चन्द्र को 167789 और चरण को 253463 मत मिले. हालांकि, चरण सिंह यहाँ से पहली बार 1977 में चुनाव जीते थे जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री हुए और चरण सिंह उप प्रधानमंत्री. जनता सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की मदद से वे देश के पांचवे प्रधानमंत्री हुए.
अपने लम्बे राजनीतिक करियर में चरण सिंह संसद में तीन बार पहुंचे, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार में वे कई बार मंत्री रहे. 1937 में ब्रितानी काल में उन्होंने पहली बार उत्तर प्रदेश के छतरौली क्षेत्र का प्रतिनिधितिव किया. आजादी के पहले और आजादी के बाद वे चार बार ( 1946, 1952, 1962 और 1967 में) इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके थे. 1951 में वे पहली बार प्रदेश के मंत्री बने. 1970 तक प्रदेश के हर मंत्रिमंडल में वे शामिल रहे. दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. अक्टूबर, 1970 में उत्तर प्रदेश में जब राष्ट्रपति शासन लागू हुआ तब वे मुख्यमंत्री थे. प्रदेश के भूमि सुधार में उनकी प्रमुख भूमिका रही.
लोकदल का गढ़  देश में ऐसे कम ही क्षेत्र होंगे जिनकी निष्ठा किसी राजनीतिक परिवार के साथ जुडी हो. उत्तर प्रदेश का बागपत उनमे एक है, जहाँ के लोगों की चरण सिंह और उनके परिवार के प्रति निष्ठा बरकरार है. यहाँ के लोग चरण सिंह को अब तक नहीं भूला पाए हैं. 1977 से यहाँ हुए नौ लोकसभा चुनावों में आठ बार बहुसंख्य मतदाताओं ने लोकदल का ही साथ दिया है. तीन बार चरण सिंह और पांच बार उनके बेटे अजीत सिंह यहाँ से चुनाव जीत चुके हैं. मात्र एक बार ही यहाँ से भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी विजयी हुआ है.

शनिवार, अगस्त 21, 2010

Biography...Sonia Gandhi Part-1

विदेशी बनाम स्वदेशी बहू

इतिहास से दिलचस्प मुकाबलें
स्वदेशी बनाम विदेशी. 13वीं लोकसभा चुनाव में कर्नाटक की बेल्लारी संसदीय सीट पर भाजपा का यह प्रमुख चुनावी मुद्दा था. सोनिया गाँधी इस सीट से चुनाव लड़  रही थीं. यह उनका पहला चुनाव था. इस चुनाव में भाजपा ने अपनी तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज को उतारा. वस्तुतः यह मुकाबाला सोनिया बनाम सुषमा का नहीं बल्कि कांग्रेस बनाम भाजपा का था. इसमें न केवल सोनिया के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण होना था, बल्कि सुषमा का राजनीतिक करियर भी दाव पर था. सोनिया को हराने के लिए जनता दल और लोकशक्ति भी सुषमा की मदद के लिए आगे आये. मुकाबला काटें का था. भाजपा ने अपने चुनाव में स्वदेशी बनाम विदेशी बहू का मुद्दा उठाया. अचरच की बात नहीं कि पहली बार पूरी बेल्लारी ने जाना कि इंदिरा गाँधी की बहू और राजीव गाँधी की पत्नी इटली की रहने वालीं हैं. 1952 से यहाँ दो बार ही विपक्ष का प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहा. बाकी चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई. यह क्षेत्र सही मायनों में कांग्रेस का गढ़ है. यही समीकरण सोनिया गाँधी को बेल्लारी खींच कर ले गया. सोनिया को हराने में विरोधियों ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, पर भाजपा का यह दाव काम नहीं आया और सुषमा की हार हुई. इस हार का सुषमा के राजनीतिक करियर पर भी असर पड़ा. सुषमा हारीं लेकिन 1999 में ही भारतीय जनता पार्टी और सहयोगियों दलों की केंद्र में सरकार बनी. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमन्त्री हुए. सोनिया गाँधी का परचम बेल्लारी और उप्र की अमेठी में लहराया. इस चुनाव  में वे दोनों संसदीय सीट से चुनाव जीतीं भी.

MK Gandhi's Speech (Real un-edited Voice)

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

'मिस्टर क्लीन' असली वारिस

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले

यह विरासत की जंग थी  और सामने था 1984 का आम चुनाव. अमेठी की जनता को तय करना था कि गाँधी परिवार का असली वारिस कौन है. चुनाव के ठीक दो महीने पहले तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी थी. देश इस घटना से स्तब्ध था. चार वर्षों के अन्दर गाँधी परिवार पर यह दूसरा संकट था. 1980 में संजय गाँधी की विमान हादसे में मौत हो चुकी थी. इस संकट की घडी में पूरा देश गाँधी परिवार के साथ था. लोग इमरजेंसी के काले अध्याय को भूल चुके थे.
संजय गाँधी की मौत के बाद माँ, इंदिरा को सहारा देने के लिए कांग्रेस में 'मिस्टर क्लीन' यानी राजीव गाँधी का पदार्पण हो चुका था. इंदिरा गाँधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व एक युवा नेता के पास था, लेकिन इंदिरा के बिना कांग्रेस की कल्पना करना बहुत मुश्किल था. यह दौर कांग्रेस के लिए भी बहुत उथल- पुथल का था.
इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस में एक यक्ष सवाल खड़ा हो गया कि, कांग्रेस (आई) का असली वारिस कौन होगा. हाशिये पर चले गए विपक्ष में एक बार फिर बेचैनी थी. देश में आठवीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. अमेठी संसदीय सीट से राजीव गांधी और मेनका आमने-सामने थे. राजीव कांग्रेस के उम्मीदवार थे और मेनका स्वतंत्र प्रत्याशी थीं. मेनका ने अपने को गाँधी परिवार का असली वारिस बताया. फैसला अमेठी कि जनता जनार्दन को करना था.
अमेठी कि जनता उहापोह में थी. एक तरफ गाँधी परिवार का बेटा जिसके सिर से दो माह पूर्व ही माँ का साया उठ गया तो दूसरी तरफ गाँधी परिवार की बहू थी. मेनका को यह उम्मीद थी कि अमेठी की जनता संजय गाँधी के कार्यों को भुला नहीं पायी होगी. वे संजय गाँधी को कांग्रेस का असली वारिस मानती थीं और उनके नहीं रहने पर वे खुद को असली वारिस समझती थीं. यह मुकाबला बहुत दिलचस्प और रोमांचक था. पूरे देश की निगाह चुनाव के नतीजो पर टिकीं थीं. अमेठी की जनता ने राजीव गाँधी को कांग्रेस की बागडोर सँभालने का जनादेश दिया. मेनका गाँधी तीन लाख मतों से चुनाव हार गई. राजीव को 365041 और मेनका को 50163 मत मिले.
अमेठी मात्र एक संसदीय सीट का चुनाव नहीं था. इसके दूरगामी परिणाम हुए. कांग्रेस में असली-नकली की बहस ख़त्म हो गई. कांग्रेस सत्ता में लौटी. राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री हुए. कांग्रेस की जीत में सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए. मेनका ने भी कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया. उनका नया ठिकाना बना पीलीभीत संसदीय क्षेत्र. 1989 में वे पहली बार इस संसदीय सीट से चुनाव जीतीं. इस सीट से बे पांच बार चुनाव जीत चुकी हैं. गैर कांग्रेसी सरकार में वे केंद्र में छह बार मंत्री बनीं.

सोमवार, अगस्त 16, 2010

कुछ खास

तीसरे  पायदान पर पहुंचे मनमोहन

पन्द्रह अगस्त को लगातार सातवीं बार लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराकर मनमोहन सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को पीछे छोड़ दिया है। फिलहाल वाजपेयी अब उनके प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं है, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी ने रानजीतिक जीवन से संन्यास ले लिया है। तिरंगा फहराने वाले प्रधानमन्त्री की कतार में तीसरे स्थान पर आ गए हैं।
.........और वंचित रहे वाजपेयी
वाजपेयी ने लगातार छह बार यह गौरव हासिल किया। राजग सरकार का नेतृत्व कर चुके वाजपेयी 19 मार्च, 1998 से 22 मई 2004 के बीच प्रधानमन्त्री रहे। उन्होंने कुल छह बार लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराया। इससे पहले वह 16 मई 1996 को भी प्रधानमन्त्री बने, लेकिन 1 जून 1996 को उन्हें पद से हटना पड़ा था। इससे वह एक मौका तिरंगा फहराने से वंचित रह गए।
नेहरू और इन्दिरा ने रचा इतिहास
देश में बीते छह दशक से जारी जश्न-ए-आजादी के सिलसिले में लालकिले की प्राचीर से सबसे ज्यादा 17 बार तिरंगा फहराने का मौका पण्डित नेहरू को मिला। 15 अगस्त 1947 को लालकिले पर उन्होंने पहली बार झण्डा फहराया। नेहरू 27 मई 1964 तक पीएम के पद पर रहे। इस अवधि में उन्होंने लगातार 17 बार तिरंगा लहराया। नेहरू की बेटी इन्दिरा उनसे एक कदम पीछे रहीं। उन्होंने 16 बार लालकिले पर तिरंगा फहराया। बतौर पीएम अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने 11 बार और दूसरे कार्यकाल में 5 बार तिरंगा फहरया।
जिन्हें नहीं मिला मौका
गुलजारी लाल नन्दा और चन्द्रशेखर ऐसे नेता रहे, जो पीएम तो बने, लेकिन उन्हें लालकिले पर तिरंगा फहराने का मौका नहीं मिला। नेहरू के निधन के बाद 27 मई 1964 को नन्दा प्रधानमन्त्री बने, लेकिन उस साल 15 अगस्त आने से पहले ही 9 जून 1964 को वह पद से हट गए और उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री पीएम बने। लाल बहादुर के निधन के बाद हालांकि उनको पीएम बनने का दूसरी बार भी मौका मिला, 24 जनवरी 1966 को नेहरू की पुत्री इन्दिरा ने सत्ता की बागडोर सम्भाल ली और वह तिरंगा फहराने से वंचित रहे। चन्द्रशेखर के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। 10 नवंबर 1990 को वह प्रधानमन्त्री बने लेकिन 1991 के स्वतन्त्रता दिवस से पहले ही उस साल 21 जून को पद से हट गए।

बुधवार, अगस्त 11, 2010

कमंडल में फंसी मेनका

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले...

पीलीभीत संसदीय सीट से पांच बार चुनाव जीत चुकी मेनका गाँधी को यहाँ 1991 में हार का भी सामना करना पड़ा था. यह वह दौर था जब मंडल की लौ मंद होने लगी थी और कमंडल का जादू जनता के सिर चढ़ कर बोल रहा था. दसवीं  लोकसभा के चुनाव यानी साल 1991 में पीलीभीत संसदीय सीट से भाजपा के परशुराम ने मेनका गाँधी को शिकस्त दी. मेनका गाँधी जनता पार्टी (नेशनल) की प्रत्याशी थीं. इस चुनाव में वे कमंडल के भवर जाल में फस गयीं. इस जंग में मेनका को मात मिली. 1984 की हार के बाद मेनका गाँधी की यह दूसरी पराजय थी.
1984  में मेनका गाँधी ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत अमेठी की हार के साथ की थी. इस चुनाव के बाद ही पीलीभीत संसदीय सीट को उन्होंने अपनी राजनीतिक कर्मस्थली बनायीं. नौवें लोकसभा चुनाव में जनता दल (कांग्रेस विरोधी दल) में शामिल हुईं और पीलीभीत सीट से वे पहली बार निर्वाचित हुईं. यह जीत मेनका गाँधी के प्रति लोगों की सहानुभूति और मंडल की मिश्रित विजय थी. हालांकि, दसवीं लोकसभा चुनाव में पीलीभीत से मेनका गाँधी की पराजय हुई. इस चुनाव में मेनका के पक्ष में 139710 मत और परशुराम को 146633 मत मिले. मेनका को 6923 मतों से हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद पीलीभीत की जनता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. मेनका गाँधी इस सीट से पांच  बार चुनी गयीं. दो बार जनता दल और दो बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में सफलता मिली. चौदहवीं लोकसभा के लिए वे पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार के रूप में जीतीं. पंद्रहवीं लोकसभा के लिए मेनका यह सीट अपने बेटे वरुण गाँधी के सुपुर्द कर खुद आवंला क्षेत्र से भाग्य आजमा रही हैं.

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

...जब रूठ गयी अमेठी

इतिहास से/ दिलचस्प मुकाबले...

अमेठी की जनता नेहरु/ गाँधी परिवार को सिर-आँखों पर बिठाती रही है, लेकिन यह मुहब्बत एक बार गड़बड़ा गयी. साल था 1977. जनता नाराज थी और नेहरु परिवार इस बात से बेखबर कि अगले 25 महीनों तक उसे बनवास झेलना पड़ेगा. 18 महीने की इमरजेंसी और 28 महीने का बनवास. 1977 के आम चुनावों में इस सीट से 'युवा ह्रदय सम्राट' संजय गाँधी को पराजय का सामना करना पड़ा. यह चुनाव एतिहासिक था. अमेठी सीट पर पूरे विपक्ष की निगाह थी. यहाँ से संजय गाँधी चुनाव लड़ रहे थे. उनके प्रतिद्वंदी जनता पार्टी के रविन्द्र प्रताप थे. संजय गाँधी की 76 हजार से अधिक मतों से हार हुई.
रविन्द्र प्रताप को 176410 और संजय गाँधी को 100566 मत मिले. जनता पार्टी के उम्मीदवार को 60 .47 फीसद और संजय गाँधी को 34.47 फीसद मत मिले. 1980 के लोकसभा चुनाव में संजय गाँधी अमेठी संसदीय सीट से लोकसभा के लिए चुने गए. केवल दो चुनावों में यहाँ कांग्रेस के प्रत्याशी की पराजय हुई. 1977 में जनता पार्टी के उम्मीदवार ने संजय गाँधी को परास्त किया. 1998 में भारतीय जनता पार्टी के संजय सिंह ने कांग्रेस को शिकस्त दी. इन दो मौकों को छोड़कर इस संसदीय सीट पर कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा है. 1977 में कांग्रेस की पराजय का प्रमुख कारण 1975 में देश में आपातकाल लागू था. अमेठी की जनता संजय गाँधी को इमरजेंसी का प्रमुख गुनाहगार मानती थी. 1998 के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की हार का मुख्य कारण देश की राजनीति में गाँधी परिवार की निष्क्रियता थी. दरअसल, राजीव गाँधी की हत्या के बाद सोनिया ने राजनीति को अलविदा कह दिया था. इस राजनीतिक निष्क्रियता ने अमेठी की जनता का कांग्रेस से मोहभंग किया. 1999 में सोनिया गाँधी ने भी उस निष्ठा का सम्मान किया और आम चुनाव में अमेठी से लड़ी. अमेठी की जनता ने एक बार फिर गाँधी परिवार में आस्था जताते हुए सोनिया को भरी मतों से विजयी बनाया. इस चुनाव में विपक्षियों की जमानत जप्त हो गयी.
अमेठी से पुराना नाता
बहुत कम लोग जानते होंगे कि नेहरु और गाँधी परिवार के प्रति निष्ठा की जडें काफी पुरानी हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरु के पिता और इंदिरा गाँधी के दादा मोती लाल नेहरु ने अपने वकालत की शुरुआत अमेठी से ही की थी. बाद में वे इलाहाबाद आ गए. यही कारण है कि चुनावी धरातल की तलाश में गाँधी परिवार ने अमेठी को ही प्रमुखता दी. इस परिवार के चार सदस्य यहाँ से चुनाव लड़े और विजयी भी हुए. संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी अमेठी लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.