मंगलवार, नवंबर 01, 2011

राहुल गांधी अचानक पहुंचे वाराणसी

 जिला प्रशासन को कोई सूचना नहीं    एक बार फिर उत्तर प्रदेश के काशी जिले में आैचक पहुंचने ने प्रदेश सरकार में हड़कंप मच गया है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी जिला प्रशासन आैर यहां तक कि स्थानीय कांग्रेसियों को चांैकाते हुए आज अचानक वाराणसी के दौरे पर आ पहुंचे।  जिलाधिकारी रवीन्द्र ने सम्पर्क करने पर राहुल के शहर में होने की पुष्टि की। उन्होंने यह भी बताया कि जिला प्रशासन को उनके आने आैर उनके कार्यक्र मों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी है।
    यहां तक कि स्थानीय कांग्रेसियों को भी राहुल के शहर में आने के बारे में कोई जानकारी नही थी। जिला कांग्रेस अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव ने बताया कि उन्हें राहुल के आने की जानकारी आज सुबह ही हो पायी।
    सूत्रों के अनुसार, राहुल आज सुबह साढे़ दस बजे विमान से शहर के बाबतपुर हवाई अड्डे पर उतरे आैर  तीन चार गाडि़यों के काफिले के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नजदीक लंका के सीर गोवर्धन इलाके में पहुंचे। उन्होंने संत रविदास मंदिर में जाकर दर्शन किये। दर्शन के बाद राहुल आगे की यात्रा पर बढ़ गये, जिसके बारे में किसी को भी आधिकारिक जानकारी नहीं है। राहुल इससे पहले भी जिला एवं राज्य प्रशासन को सूचित किये बिना प्रदेश के विभिन्न भागों में अचानक दौरे कर चुके हैं, जिसके बाद कई बार प्रदेश सरकार ने केन्द्र सरकार को पत्र लिखकर उनकी सुरक्षा के बारे में अपनी चिंता आैर आपत्ति दर्ज करायी। 

मंगलवार, अक्तूबर 11, 2011

राहुल बोले ..भूख लगी है, पहले खाना खाऊंगायुवराज’ को दरवाजे पर देख निहाल हो गए दलित कुंजीलाल

झांसी   अन्ना की आंधी का गुबार छंटने के बाद कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी एक बार फिर पुराने अंदाज में लौट आए हैं। सोमवार की रात उन्होंने उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में स्थित मेंढकी गांव में अचानक एक दलित के घर पहुंचकर सबको चकित कर दिया।
रात के साढ़े आठ बजे थे। दलित कुंजी लाल आर्य के घर की कुंडी खटखटाई जाती है। अनमना सा कुंजीलाल दरवाजा खोलता है और दरवाजे पर खड़े कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को देखकर अवाक रह जाता है। चेहरे पर मुस्कान और दलित कुंजीलाल से यह पूछना कि क्या खाना खिलाएंगे, सुनकर वह निहाल हो जाता है। उसकी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता कि वह राहुल गांधी को कहां बैठाए घर के बाहर ही चारपाई डाल दी जाती है और गांधी उसी पर बैठ जाते हैं। देखते-देखते बात पूरे गांव में फैल जाती है कि राहुल दलित कुंजीलाल के घर आए हैं। गांव वालों का जमघट उसके घर के बाहर लग जाता है। गांव वाले कुछ कहें या पूछे इसके पहले ही गांधी बोल पडते हैं ..भूख लगी है पहले खाना खाऊं गा।
गांधी बड़े चाव से भर पेट पूरी और आलू की सब्जी खाते हैं। उसके बाद गांव वालों से उनकी बात शुरू होती है। वह गांव वालों से पहला सवाल करते हैं कि मनरेगा में उन्हें काम मिलता है या नहीं और यदि मिलता है तो मजदूरी कितनी मिलती है। मजदूरी मिलने में देर तो नहीं होती। गांव वाले पूरे दिन काम नहीं मिलने तथा मजदूरी देर से मिलने की शिकायत करते हैं। राहुल बताते हैं कि केंद्र सरकार मनरेगा समेत अन्य योजनाओं के लिए पूरै पैसे देती है और यदि केंद्र की किसी योजना का लाभ लोगों को नहीं मिलता है तो यह राज्य सरकार की कमजोरी है। गांव वालों के साथ वह देर रात तक बातचीत में मशगूल रहते हैं। करीब एक बजे घर के बाहर लगी चारपाई पर लेट जाते हैं। कुछ देर बाद वह सो जाते हैं, जबकि उनके सुरक्षाकर्मी चौकस उनकी चारपाई के पास ही खड़े हैं। सुबह करीब पांच बजे उनकी नींद खुलती है। वह दैनिक क्रिया से निपटने के बाद कुंजीलाल को रात में खाना खिलाने के लिए धन्यवाद देने के साथ ही सर्किट हाऊस रवाना हो जाते हैं।
 इससे पूर्व, सोमवार को झांसी में राहुल ने युवक कांग्रेस के चिंतन शिविर में ज्वलंत मुद्दों पर युवाओं की राय जानने के लिए उनसे करीब ढाई घंटे तक बातचीत की। शहर स्थित एक होटल में चल रहे प्रशिक्षण शिविर में करीब सौ युवा कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करने पहुंचे राहुल ने गांधीवादी अन्ना हजारे के जन लोकपाल विधेयक के औचित्य पर युवाओं की राय जानी। कार्यशाला में युवाओं के साथ बातचीत के बाद राहुल को दिल्ली लौट जाना था, लेकिन उन्होंनें अपना कार्यक्रम बदला और रात में यहीं रुकना तय किया। वह सर्किट हाऊस में बुंदेलखंड के वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं से भी मिले और आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर उनसे बातचीत की।

रविवार, अगस्त 21, 2011

पंडित नेहरू बनाना चाहते थे लोकपाल
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक स्वतंत्र निकाय का गठन करना चाहते थे।

पूर्व निर्वाचन आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति के मुताबिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक लोकपाल बनाने के मुद्दे पर 1962 में हुए तीसरे अखिल भारतीय विधि सम्मेलन में विचार-विमर्श हुआ था। यह विचार-विमर्श नेहरू की पहल पर हुआ था। उन्होंने कहा, 'लोकपाल की नियुक्ति का मुद्दा नेहरू के सुझाव के बाद आया था। उस सम्मेलन में ऐसे एक कार्यालय से जुड़ी रूपरेखा के बारे में विचार-विमर्श हुआ था। उन्होंने बताया, 'लोकपाल पर आयोजित सत्र की अध्यक्षता तत्कालीन एटॉर्नी जनरल एमसी सीतलवाड़ ने की थी और सर्वसम्मति से यह कहा गया कि आधिकारिक ¨और राजनीतिक, दोनों स्तरों पर भ्रष्टाचार के आरोपों से निपटने के लिए एक लोकपाल नियुक्त किया जाए।"


उन्होंने बताया कि ऐसे विधेयक के विवरण और विशेष प्रावधानों के बारे में विमर्श किया जाना था और एक बहस के लिए सुझाव भी मंगाए जाने थे, ताकि सरकार संसद में पेश करने के लिए इस पर विचार कर सके। कृष्णमूर्ति ने बताया कि इसके कुछ ही समय बाद सरकार का पूरा ध्यान 1962 में हुए चीन-भारत युद्ध की ओर चला गया और विधेयक पेश नहीं हो सका। उन्होंने बताया कि नेहरू के निधन के बाद इस मुद्दे पर से ध्यान हट गया ।  


साल 1993 से 1999 के दौरान निर्वाचन आयुक्त रहे कृष्णमूर्ति ने 12 से 14 अगस्त, 1962 को विज्ञान भवन में हुए इस विधि सम्मेलन में एक दस्तावेज प्रस्तुत किया था । इस सम्मेलन की अध्यक्षता पूर्व प्रधानमंत्री नेहरु ने की थी और इसमें तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी पी सिन्हा समेत लगभग 1,500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उन्होंने बताया कि नेहरू की सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगने के बाद लोकपाल जैसा स्वायत्तशासी निकाय बनाने की पहल ने जोर पकड़ा था। उन्होंने कहा, 'देश के स्वतंत्र होने के बाद लोगों के बीच आशा थी कि देश में एक जिम्मेदार सरकार आएगी, जो पूरे समर्पण से काम करेगी।"


पूर्व निर्वाचन आयुक्त ने कहा, 'दुर्भाग्यवश, देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद राष्ट्र में कई घोटाले सामने आए।" कृष्णमूर्ति ने 1948 के जीप घोटाले और 1950 के मुद्गल मामले का संकेत दिया, जिसने कांग्रेस सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया था। नेहरु के 15 अगस्त, 1947 से 27 मई, 1964 तक के कार्यकाल के बीच 1960 में के डी मलाव्या घोटाला, धर्मतेज ऋण घोटाला और 1961 में साइकल घोटाला सामने आए थे। इसके बाद भ्रष्टाचार से निपटने के लिए तंत्र विकसित करने की जरूरत पर बल दिया जा रहा था । 


सम्मेलन में कृष्णमूर्ति ने जो दस्तावेज प्रस्तुत किया था, उसके मुताबिक लोकपाल को उसी तरह का निकाय बनाया जाना था, जैसा अन्ना हजारे की समिति की ओर से जन लोकपाल विधेयक में सुझाया गया है।


बुधवार, जून 29, 2011












लोकपाल दायरे में नहीं होगा न्यायपालिका : पीएम
 अपने को लोकपाल के दायरे में शामिल करने से कोई परहेज नहीं जताने के साथ ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च न्यायपालिका को इसके अंतर्गत लाने से इंकार कर दिया।
 प्रधानमंत्री ने कहा कि उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के अंतर्गत लाने से यह संविधान की भावना के विपरीत हो जाएगा। उच्च न्यायपालिका के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा कि इसे लोकपाल के दायरे में लाने के बारे में स्पष्ट आपत्ति है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को संविधान के दायरे में अपने मामलों को स्वयं संचालित करने के तरीके ढूंढने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सिंह ने सवाल किया, अगर शीर्ष अदालत को लोकपाल के दायरे में ले आया गया तो वह पेचीदा मुद्दों पर फैसले कैसे करेगी। सिंह ने कहा कि हम व्यापक राष्ट्रीय सहमति कायम करने के लिए ईमानदारी से काम करेंगे, ताकि मजबूत लोकपाल के लिए हम कानून बना सकें।
केंद्र और राज्य सरकारों के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अंतर्गत लाने की हजारे पक्ष की मांग के बारे में उन्होंने कहा, 'मुझे शक है कि हमारी व्यवस्था इस दबाव को सहन करने में सक्षम हो पाएगी। हमें अपने आप को उच्च स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार तक केन्द्रित रखना चाहिए, जो कहीं अधिक घृणित है।" उन्होंने कहा कि वह समाज के सदस्यों का सम्मान करते हैं। इसीलिए वह उनसे संवाद कायम किए हुए हैं। उन्होंने अन्ना हजारे से मार्च में मुलाकात के दौरान वादा किया था कि सरकार संसद के मानसून सत्र में लोेकपाल विधेयक लाने के लिए प्रतिबद्ध है।
 

सिंह ने कहा हालांकि, दो तीन दिन के भीतर ही उन्होंने पाया कि हजारे को कुछ अन्य शक्तियां नियंत्रित कर रही थीं। उन्होंने कहा कि इसी तरह उनकी सरकार ने योगगुरु रामदेव से पूरी ईमानदारी से बातचीत की थी। यह प्रयास इसलिए किया गया ताकि उनके साथ बेवजह की गलतफहमी पैदा न हो।
 

रविवार, जून 26, 2011

पीएम पद किसी की जागिर नहीं : आडवाणी

साभार एलके आडवाणी का ब्लाग

कांग्रेस पार्टी के भीतर से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की मांग के बीच भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात पर जोर दिया है कि भारत जैसे लोकतंत्र में प्रधानमंत्री पद को किसी एक परिवार की जागीर नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
 आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि एक समय ऐसा था, जब कांग्रेस ऐसा व्यापक प्लेटफॉर्म था, जिसमें सभी क्षेत्रों के देशप्रेमियों को जगह मिली हुई थी। वास्तव में, यह महात्मा गांधी का ही आदेश था कि उस समय हिंदू महासभा से जुड़े डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और कांग्रेस के आलोचक डॉ. बीआर अंबेडकर को स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में जगह मिली। उन्होंने लिखा है, 'दु:ख की बात ये है कि कांग्रेस आज सिर्फ एक परिवार की जागीर बन गई है। प्रधानमंत्री का पद या तो नेहरू परिवार के किसी सदस्य या उनके द्वारा नामांकित किसी व्यक्ति के लिए आरक्षित रह गया है। कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा नामंकित प्रधानमंत्री की भारत भारी कीमत चुका रहा है।"
 आडवाणी के मुताबिक, इसके बाद अब कांग्रेस पार्टी के भीतर से मांग उठ रही है कि नेहरू परिवार के एक वंशज को प्रधानमंत्री पद संभाल लेना चाहिए। भाजपा नेता ने लिखा, 'संप्रग सरकार जैसा शासन दे रही है, हमारा देश उसका भार ज्यादा दिन नहीं उठा सकता। भारत जैसे महान लोकतंत्र में प्रधानमंत्री पद किसी एक परिवार की जागीरदारी नहीं बनने दिया जाना चाहिए।

कश्मीर समस्या नेहरू परिवार का विशेष उपहार : आडवाणी का मानना है कि कश्मीर समस्या देश को दिया गया नेहरू परिवार का विशेष 'उपहार" है। विभाजन के समय इसका समाधान कर पाने में जवाहर लाल नेहरू की असफलता की देश भारी कीमत चुका रहा है। आडवाणी ने अपने ब्लॉग में  लिखा है, 'दु:ख की बात है कि न तो दिल्ली में नेहरू सरकार और न ही श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला सरकार ने कभी इस बात को माना कि जम्मू-कश्मीर का भारत संघ में पूरी तरह एकीकरण करने की जरूरत है। शेख अब्दुल्ला के मामले में समस्या यह थी कि उनकी एक तरह से स्वतंत्र कश्मीर का एकछत्र नेता बनने की महत्वाकांक्षा थी, जबकि नेहरूजी की ओर से इस मामले में साहस और दूरदर्शिता की कमी रही।    
भारत ने गवाएं कई मौके : आडवाणी के मुताबिक, 'गौर करने वाली बात यह है कि गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल सभी दूसरी राजशाही वाली सियासतों का भारत संघ में एकीकरण करने में सफल रहे। जब उनमें से किसी ने दुविधा दिखाई या पाकिस्तान में शामिल होने की इच्छा जाहिर की, तो पटेल ने उन्हें उनकी जगह दिखा दी। उदाहरण के लिए, हैदराबाद के निजाम के सशस्त्र विद्रोह को कुचल दिया गया। उन्होंने लिखा है, 'जम्मू-कश्मीर राजशाही वाला एकमात्र ऐसा राज्य था, जिसे भारत से जोड़े जाने की प्रक्रि या सीधे प्रधानमंत्री नेहरू की देख-रेख में हो रही थी। कश्मीर को पाने के लिए भारत के खिलाफ पाकिस्तान की 1947 की पहली जंग ने भी नेहरू सरकार को इस बात का बेहतरीन मौका दिया था कि वह न केवल हमला करने वालों को खदेड़ देती, बल्कि पाकिस्तान के साथ हमेशा के लिए कश्मीर मुद्दे को सुलझा देती। भाजपा के वरिष्ठ नेता ने लिखा है कि भारत ने ऐसा दूसरा बड़ा मौका 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी गंवाया। इसमें भारत ने न केवल पाकिस्तान को हराया, बल्कि पाकिस्तान के लगभग 90,000 युद्धबंदी भी भारत में आ गए।
तोहफे के छह परिणाम : आडवाणी के मुताबिक, इस 'तोहफे" के छह परिणाम आज तक देखने को मिल रहे हैं। उन्होंने कहा, इसका पहला परिणाम, पाकिस्तान की ओर से सबसे पहले कश्मीर और बाद में भारत के विभिन्न हिस्सों में सीमा पार से आतंकवाद का निर्यात है। दूसरा, पाकिस्तान की ओर से कश्मीर और बाद में देश के दूसरे हिस्सों में फैले धार्मिक चरमपंथ का निर्यात। तीसरा, हमारे सुरक्षा बलों के हजारों जवानों और नागरिकों की मौत। चौथा, सैन्य और अद्र्धसैनिक बलों पर खर्च होने वाले हजारों करोड़ों रुपए। इसी की बदौलत बाहरी ताकतें भारत पाकिस्तान के तनावपूर्ण संबंधों का फायदा उठा रही हैं। इस तोहफे का अंतिम नुकसान कश्मीरी पंडितों के पूरे समुदाय को उठाना पड़ रहा है, जो अपनी जमीन से विस्थापित होकर अपनी ही मातृभूमि में शरणार्थी बन कर रहने को मजबूर हो गए हैं।
काम आया श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान : आडवाणी ने इस मामले में डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के योगदान की चर्चा करते हुए लिखा है कि डॉ. मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को पृथक रखने के परिणामों को बहुत पहले ही महसूस कर लिया था। इसी के चलते उन्होंने प्रदेश के भारत में पूरी तरह विलय का सपना देखा। डॉ. मुखर्जी ने अपने इस अभियान को तीन स्तरों,  राजनीतिक, संसदीय और कश्मीर में मैदानी स्तर पर अंजाम देने की योजना बनाई और 'सबसे पहले उन्होंने अक्तूबर, 1951 में कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प के तौर पर भारतीय जन संघ बनाया। इसका एजेंडा कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के अलावा, हाल ही में स्वतंत्र हुए भारत को समृद्ध बनाना था, जहां किसी के साथ जाति, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव न हो। दूसरे स्तर के बारे में उन्होंने लिखा है कि 1952 में जब पहले आम चुनाव हुए, तब डॉ. मुखर्जी एक तरह से लोकसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर उभरे। यहां उन्होंने जम्मू-कश्मीर को लेकर कांग्रेस सरकार की

शनिवार, जून 25, 2011

मादक पदार्थो की तस्करी : भेंट चढ़ते मासूम


26 जून : अंतरराष्ट्रीय मादक पदार्थ निरोधक दिवस
  दुनियाभर में नशीले पदार्थों के व्यापार को बढ़ावा देने वाले नशे के सौदागर गरीब और अनाथ बच्चों का इस्तेमाल इस धंधे को आगे बढ़ाने में कर रहे हैं। इसके लिए वे बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और  छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से बच्चों को तस्करी करके लाया जाता है। उनको बाल मजदूरी तथा नशीले पदार्थो की तस्करी जैसे कामों में लगाया जाता है।
  बच्चे आसानी से तस्करों के गिरफ्त में आ जाते हैं। इसलिए उनका इस्तेमाल मादक पदार्थों की तस्करी में किया जाता है। यह बहुत खतरनाक अवधारणा है, जो लगातार बढ़ती जा रही है। मादक पदार्थो की तस्करी करने वाले बच्चो को बाल न्याय अधिनियम के तहत बहुत कम सजा दी जाती है, जिसका तस्कर फायदा उठाते हैं।
     बड़ी संख्या में बच्चे उत्तर पूर्व से मादक पदार्थ तस्करी कर उसे बिहार और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में आपूर्ति करते हैं। दिल्ली में 50 हजार बच्चे सड़कों पर रहते हैं। इनमें से ज्यादातर नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। उसकी तस्करी भी करते हैं। बच्चों को बाल मजदूरी और तस्करी के धंधे में धकेलने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती। इससे अपराधी बिना डर के इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देते हैं। 
जागी दुनिया...   वैश्विक स्तर पर नशीले पदार्थो के बढ़ते इस्तेमाल के खिलाफ दिसम्बर, 1987 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 26 जून के दिन को मादक पदार्थो की तस्करी एवं गैर कानूनी प्रयोग के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया।

यूएनओडीसी की रिपोर्ट-विश्वभर के 21 करोड़ लोग या 15 से 64 साल उम्र की विश्व की 4.9 प्रतिशत जनसंख्या नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करती है।
-प्रति वर्ष दो लाख लोग मादक पदार्थों के इस्तेमाल के कारण मारे जाते हैं।
-मादक पदार्थो की तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है।
-वर्ष 2010 में विश्वभर में अफीम की खेती 1,95,700 हेक्टेयर में हुई।
-अफगानिस्तान में विश्वभर के कुल अफीम उत्पादन का करीब 74 प्रतिशत हिस्सा या 3,600 टन पैदा होता है।


'जब तक कि हम अवैध नशीले पदार्थों की मांग की कम नहीं करते हैं तब तक हम पूरी तरह से उनकी फसलों के उत्पादन या उनकी तस्करी को पूरी तरह से रोक नहीं सकते हैं।"                                      बान की मून (संयुक्त राष्ट्र महासचिव)

गुरुवार, जून 23, 2011

शास्त्री के निधन पर एक देश की 'झूठी अफवाह"

 गुप्तचर रिपोर्ट की खुलासा  ताशकंद में चार दशक पहले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन के मामले में एक देश ने झूठी अफवाह फैलाई, जिसके अब भारत के साथ अच्छे संबंध है। यह संकेत केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से पेश गोपनीय दस्तावेजों से मिलते हैं।
 मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंदा मिश्र ने निर्देश दिया था कि शास्त्री की मौत से संबंधित गोपनीय दस्तावेजों को सीलबंद लिफाफे में उनके समक्ष पेश किया जाए। यद्यपि प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस निर्देश पर केवल एक पन्ने का दस्तावेज पेश करते हुए कहा कि गोपनीय श्रेणी में उसके पास केवल यही दस्तावेज है।    दस्तावेज को देखने के बाद मिश्रा ने कहा कि दस्तावेज का पूर्व प्रधानमंत्री की मौत से कोई सीधा संबंध नहीं है। मिश्रा ने कहा कि दस्तावेज में विभिन्न सूत्रों से एकत्र गुप्तचर जानकारियां हैं। इसमें कहा गया है कि एक देश शास्त्री की मौत पर झूठी अफवाह फैला रहा था।
 
उन्होंने बिना किसी देश का नाम लिए बिना कहा कि इसमें जिस देश का उल्लेख है उसके साथ तत्कालीन समय में हमारे अच्छे संबंध नहीं थे, लेकिन अब निश्चित रूप से उसके साथ अच्छे संबंध है। इस दस्तावेज को यदि जारी कर दिया गया तो इससे निश्चित रूप से इन संबंधों पर असर पडे़गा। यह मामला 'सीआईएज आई आन साउथ एशिया" के लेखक अनुज धर की ओर से सूचना के अधिकार के तहत दायर आवेदन का है, जिसमें उन्होंने वर्ष 1966 मे ताशकंद में शास्त्री की मौत से संबंधित प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा रखे गए गोपनीय दस्तावेज को जारी करने की मांग की थी। इस पर प्रतिक्र या देते हुए भाजपा नेता एवं शास्त्री के पोते सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा कि भारत में सभी गलत चीजों के लिए एक बार पाकिस्तान या अंतरराष्ट्रीय समुदाय को जिम्मेदार ठहराने की आदत थी।

उन्होंने पूछा कि यदि गत चार दशकों से इसे लेकर झूठी अफवाह थी तो सरकार गोपनीय रिकार्डों को जारी करने से परहेज क्यों कर रही थी।  उन्होंने कहा कि संदेह झूठी अफवाह पर नहीं है। संदेह अतिसंवेदनशील हालात में शास्त्रीजी की असामयिक निधन के कारण है। इस सुनवाई के दौरान मिश्रा ने यहा भी कहा कि शास्त्री का निधन हुए चार दशक बीत चुके हैं आैर यदि सरकार ने इस मामले में श्वेतपत्र पहले ही जारी कर दिया होता तो षड्यंत्र के ये सिद्धांत समाप्त हो सकते थे, लेकिन उसने इस मामले पर चुप्पी साध ली। सिंह ने कहा कि यह मानने के लिए प्रर्याप्त कारण हैं कि उनकी मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी क्योंकि उनका पार्थिक शरीर नीला पड़ गया था, उनका कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया, निधन के बाद उनका खानसामा अचानक गायब हो गया तथा आखिरी समय में प्रधानमंत्री के लिए निर्धारित होटल का कमरा बदला जाना। 
 खानसामा के बारे में यह माना जाता है कि वह पाकिस्तान भाग गया था। आवेदन दायर करने वाले धर ने कहा कि शास्त्री के निधन के पीछे किसी अन्य देश का हाथ होने की जो बात सूचना में कही गयी है उसकी जड़ें तत्कालीन सोवियत संघ की गुप्तचर एजेंसी केजीबी तक हो सकती है। केजीबी इस मामले से अपना पल्ला झाड़ना चाहती थी और उस समय सीआईए का हौवा भारत पर हावी था। पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 के युद्ध के बाद शास्त्री पाकिस्तान के  तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान से मिलने तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद गए थे। 11 ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर होने के बाद जनवरी 1966 को उनका संदिग्ध परिस्थिति में निधन हो गया। उनके परिवार ने इसके पीछे साजिश होने के आरोप लगाते हुए शास्त्री का पोस्टमार्टम कराने की मांग की थी, लेकिन ऐसा नहीं कराया गया।

रविवार, जून 19, 2011

अब डैड के रुआब से बेखौफ हैं लाडले


बदलते दौर में बदल रही है पिता की भूमिका

फादर्स डे पर विशेष

वह दिन हवा हुए जब घर में पिता का रुआब चलता था। घर में पिता से बच्चे खौफ खाते थे। पिता और बच्चों के बीच सिर्फ पढ़ने पढ़ाने की बातें होती थीं। बच्चे मां के जरिए अपनी मांगें पिता तक पहुंचाते थे। आज के नए दौर में पिता की भूमिका और अपने बच्चों के साथ उनके रिश्तों में काफी बदलाव आया है। दोनो के बीच पनपे दोस्ताना रिश्ते,  जहां बच्चे के समग्र विकास में सहायक हैं, वहीं परिवार का माहौल बेहतर बनाने में भी मदद देते हैं। 

 चाइल्ड साइकोलॉजिस्टों की राय : इनका मानना है कि बच्चों के विकास में पिता का मित्रवत व्यवहार और उनका साथ अहम भूमिका निभाता है। समय के साथ रिश्तों में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। आजकल माता-पिता दोनों कामकाजी होते हैं। ऐसे में पिता की भूमिका और जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। बच्चों से उनकी नजदीकी बढ़ी है। यह बच्चे के समग्र विकास के लिए बहुत जरूरी है। पिता को बच्चों से उनकी पढ़ाई, दोस्तों के बारे में बात करना चाहिए। इससे उनके संबंध मित्रवत रहेंगे। दरअसल, पिता की भूमिका का, उसके संबंधों का परिवार और बच्चे पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पिता के बच्चों से संबंध दोस्ताना हो तो इससे परिवार का माहौल सकारात्मक रहता है। इसका बच्चे के विकास पर भी अच्छा असर पड़ता है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्टों की राय है कि संबंधों में और प्रगाढ़ता लाने के लिए पिता को सप्ताहांत पर बच्चों को बाहर ले जाना चाहिए। उनके साथ उनकी रुचि के खेल वगैरह खेलने चाहिए। उनके शिक्षकों से मिलना चाहिए। इससे परिवार पर पिता की पकड़ मजबूत होगी और बच्चा उनसे खुल कर अपनी बात कर पाएगा। यह तब ज्यादा जरूरी हो जाता है जब महानगरों की व्यस्तताभरी जिंदगी के बीच पिता के पास बहुत ज्यादा समय वैसे भी नहीं होता ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करने के बाद कामकाज के बीच जो समय बचता है। उसे वह बच्चों के साथ हंस-खेल कर बिताना चाहते हैं।


क्या कहते हैं बच्चे : अर्णव ने कहा कि कभी-कभी वह एक सख्त पिता की भूमिका में होते हैं, लेकिन अधिकतर मैंने उन्हें मित्रवत व्यवहार करते हुए ही देखा है। वह मेरे सबसे अच्छे दोस्त हैं, पर अन्य मित्रों से अलग वह निस्वार्थ हैं। वह मेरा मार्गदर्शन करते हैं। जब मैं कोई फैसला नहीं ले पाता तो मुझे रास्ता बताते हैं। मैं उन्हें अपनी सारी बातें खुल कर बताता हूं। हां, टीवी देखने को लेकर जरूर उनसे थोड़ा डरता हूं। उनके घर पर नहीं रहने पर टीवी वगैरह ज्यादा चलाता हूं। उनके होने पर थोड़ा कम देखता हूं।

भारत में फादर्स डे के मायने
भारतीय परिप्रेक्ष्य में फादर्स डे का उतना महत्व उतना नहीं है, जितना पश्चिम में है। यहां यह सिर्फ उपहार व कार्ड आदि के व्यापार को बढ़ावा देने का एक साधन है। विदेशों में 17-18 साल की उम्र में ही बच्चे अभिभावकों से अलग रहने लगते हैं। इसलिए फादर्स डे, मदर्स डे आदि उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं, लेकिन भारत में अब भी स्थिति इससे उलट है। यहां आज भी बच्चे लंबे समय तक माता-पिता के साथ ही रहते हैं। उन्होंने कहा कि इसके अलावा भारत के पास होली, दीपावली, रक्षाबंधन सहित खुद अपने इतने त्यौहार हैं कि उसे इन सब की जरूरत ही नहीं है। भारत में तो हर दिन फादर्स डे, मदर्स डे है, क्यों कि हम हमेशा उनके साथ रहते हैं तथा प्यार और भावनाएं उनके साथ बांटते हैं।

पुत्रवधुएं करती है बुजुर्गों के साथ अत्याचार



-इसमें वृद्धों से तेज आवाज में बात करना, अपशब्द का प्रयोग, नाम से पुकारना, गलत आरोप लगाना शामिल है
-करीब 22 प्रतिशत वृद्ध अत्याचार सहते हैं


अभी तक यही माना जाता था कि ससुराल में बहुओं के साथ अत्याचार होता हैं, लेकिन हाल में कराए गए एक सर्वेक्षण में देश के निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में वृद्धों के साथ पुत्रवधुएं के अत्याचार करने की बात सामने आई हैं।
 हेल्पएज, इंडिया की ओर से कराए गए सर्वेक्षण 'एल्डर एब्यूज एंड   क्रइम इन इंडिया" के अनुसार देश के निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में 63.4 प्रतिशत मामलों में पुत्रबधुएं वृद्धों के साथ दुव्र्यवहार करती हैं, जबकि पुत्र 44 प्रतिशत मामलों में ही वृद्धों के साथ अत्याचार हैं। पुत्रों के अत्याचार के मामले में इस वर्ष वृद्धि दर्ज की गई है, पिछले वर्ष यह आकड़ा 53.6 प्रतिशत था।
 देश के नौ शहरों पर आधारित इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट में निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में वृद्धों के मौखिक अत्याचार को आधार बनाया गया। इसमें वृद्धों से तेज आवाज में बात करना, अपशब्द का प्रयोग, नाम से पुकारना, गलत आरोप लगाना शामिल है। सर्वेक्षण के अनुसार उच्च सामाजिक आर्थिक परिवेश में भी वृद्धों के प्रति अशिष्टता करके उनके साथ अत्याचार किया जाता है। सर्वेक्षण के अनुसार मौखिक अत्याचार दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र,  मुंबई,  हैदराबाद और चेन्नई में सबसे अधिक 100 प्रतिशत है। पटना में शारीरिक अत्याचार सबसे अधिक 71 प्रतिशत जबकि अहमदाबाद में सबसे कम है।
सर्वेक्षण के अनुसार वृद्धों के प्रति अत्याचार के मामलों में वृद्धि के लिए मुख्य रूप से शहरों में आवासों के आकार में कमी, सामाजिक परिवेश और मूल्यों में भारी बदलाव तथा नई पीढ़ी की छोटे परिवार को पंसद करना शामिल है । सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि राष्ट्रीय स्तर पर 70 वर्ष से अधिक वृद्धों के मामलों में अत्याचार के मामले सबसे अधिक है। पुत्रों पर निर्भर रहने के कारण वृद्ध महिलाएं सबसे अधिक अत्याचार  की शिकार होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार करीब 22 प्रतिशत वृद्ध अत्याचार सहते हैं।


-मौखिक  अत्याचार : दिल्ली,  मुंबई, हैदराबाद और चेन्नई में सबसे अधिक 100 प्रतिशत है।
-शारीरिक अत्याचार : पटना में सबसे अधिक 71 प्रतिशत, अहमदाबाद में सबसे कम है।


महानगरों में  अत्याचार

 44 प्रतिशत : बेंगलुरू
38 प्रतिशत : हैदराबाद
 30 प्रतिशत : भोपाल
23 प्रतिशत : कोलकाता
02 प्रतिशत : चेन्नई

गुरुवार, जून 16, 2011

सूखे की चपेट में 54,000 गांव

वल्र्ड डे टू कॉमबैट डेजर्टिफिकेशन एंड ड्राउट पर विशेष
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में 54,000 गांव ऐसे हैं, जहां सूखे की समस्या के कारण पीने का पानी तक नहीं मिलता है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1987 के सूखे से देश के 12 राज्यों 10 करोड़ लोग और छह करोड़ मवेशी प्रभावित हुए थे। उस साल फसलों के उत्पादन में 17 प्रतिशत की कमी आई थी।
 एक शोध के मुताबिक देश प्रत्येक 32 सालों में एक भयंकर सूखे का सामना करता है। हर तीसरे साल देश में सामान्य सूखे की स्थिति रहती है। सूखा से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य हैं कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और  झारखंड। हमारा देश हर तीसरे साल सूखे का सामना करता है। राजस्थान का एक बड़ा भाग गर्म मरुस्थल है तो जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के बड़े भाग में बर्फ का मरुस्थल पसरा हुआ है। ऐसे में बढ़ती बंजर भूमि और सूखा के कारण एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब हमें खाने को अनाज मिलना भी मुश्किल हो जाए।

एशिया में 1.7 अरब हेक्टयर भूमि असंचित : संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक एशिया में 1.7 अरब हेक्टयर भूमि संचित नहीं है। इसमें कम सिंचाई वाले और सूखा क्षेत्र शामिल है। संघ ने इससे निपटने के लिए एक 'प्लान ऑफ एक्शन" बनाया। भारत, पाकिस्तान, चीन, नेपाल एवं श्रीलंका सहित एशिया के 24 देशों ने सूखा और मरुस्थलीकरण को रोकने के इस प्लान ऑफ एक्शन को लागू किया है। भारत सरकार ने सूखे और बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर कई योजनाएं लागू की हैं। इनमे तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं वर्ष 1974 में लागू सूखा प्रभावित क्षेत्र कार्यक्रम, वर्ष 1978 में लागू मरुस्थल विकास कार्यक्रम और वर्षा आधारित क्षेत्रों के वर्ष 1990 में लागू राष्ट्रीय जलसंभरण कार्यक्रम।


क्या करें और क्या नहीं करें
-सूखे से निपटने के लिए हमें सिंचाई के क्षेत्र को बढ़ाना होगा़
-सिंचाई की नई तकनीकों को अपनाना होगा, जिससे सिंचाई कम पानी में ही पूरा हो सके
-रासायनिक उर्वरकों के इस्मेताल को रोकना होगा
-उर्वरकों के लगातार प्रयोग से मिट्टी की पानी सोखने की शक्ति कम हो जाती है। ऐसे में बार-बार सिंचाई की जरूरत होती है, जिसमें ज्यादा पानी बरबाद होता है



1977  में सजग हुई दुनिया : वर्ष 1977 में मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए हुई संयुक्त राष्ट्र संघ की एक गोष्ठी में इसे मूर्त रूप दिया गया। इसकी शुरुआत दुनिया के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की मदद करने के लिए की गई। इसके बाद वर्ष 1991 से लागू संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्र म में इस पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इस मामले में हमें इसाइल से सबक लेना चाहिए। उसने रेगिस्तान के बीच 'ग्रीनबेल्ट" विकसित किए हैं जिसके बाद वहां वर्षा की मात्रा में 25 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है।



'हमें देश की नदियों को बचाना होगा। जो जमीनें बंजर हैं, वहां कम पानी के इस्तेमाल से उगने वाले पौधों की खेती आैर पेड़ लगाने को बढ़ावा देना होगा। इससे भू-जल स्तर में सुधार होगा और सूखे की समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी।"    
                                                                                मेधा पाटकर 

                                                   
'अगर हम देश में बाढ़ की कारक नदियों को नहरों के माध्यम से सूखा प्रभावित क्षेत्र से जोड़ दें तो हमें एक साथ बाढ़ और  सूखा दोनों से निजात मिल जाएगी।                                                               डॉ.  अब्दुल कलाम

रविवार, जून 12, 2011

ग्राफ

ग्राफ


कैप्शन जोड़ें
 निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के हक से महरूम नौनिहाल 
छह से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (आरटीई) को लागू हुए एक वर्ष से अधिक समय गुजरने के बावजूद अब तक देश के केवल 18 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने ही इस कानून को अधिसूचित किया है। दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में अभी भी कानून नहीं बनाया जा सका है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय से प्राप्त ताजा जानकारी के अनुसार, नौ राज्यों इस कानून को विधि विभाग को मसौदा विचार के लिए भेजा है। छह राज्यों ने इस कानून को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने की बात कही है। निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून के तहत ही प्रदेशों में राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद (एससीपीसीआर) गठित करने का प्रावधान किया गया है। हालांकि, अब तक केवल 14 राज्यों में ही राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद का गठन किया गया है। असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम आैर उत्तराखंड ने एससीपीसीआर का गठन किया है।
 हालांकि, महत्वाकांक्षी सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के आंकड़ों पर गौर करें तो एसएसए के तहत आरटीई लागू होने के एक वर्ष गुजरने के बाद देश में अभी भी 81 लाख 50 हजार 619 बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर है। 41 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं है। 49 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है। प्राथमिक स्कूलों में दाखिल छात्रों की संख्या 13,34,05,581 है जबकि उच्च प्राथमिक स्कूलों में नामांकन प्राप्त 5,44,67,415 है।
 साल 2020 तक सकल नामांकन दर को वर्तमान 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, लेकिन सर्व शिक्षा अभियान के 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार, बड़ी संख्या में छात्रों को स्कूली शिक्षा के दायरे मेें लाने के लक्ष्य के बीच देश में अभी कुल 44,77,429 शिक्षक ही हैं। देश में फिलहाल छात्र शिक्षक अनुपात 32 : 1 है। वैसे 324 ऐसे जिले भी हैं जिनमें निर्धारित मानक के अनुरूप छात्र शिक्षक अनुपात 30 : 1 से कम है । देश में 21 प्रतिशत ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है। देश में नौ प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जिनमें केवल एक शिक्षक हैं।


राज्यवार स्थितिराज्यों ने बनाया कानून : आंध्र प्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह, बिहार, चंडीगढ़, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, मध्यप्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, नगालैण्ड, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम ने आरटीई कानून को किया अधिसूचित
मसौदा पर मंथन : दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मेघालय, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, कर्नाटक ने अपने विधि विभाग को मसौदा विचार के लिए भेजा
कैबिनेट में फंसी फाइल : गुजरात, असम, केरल, मेघालय, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा ने इस कानून को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने की बात कही


कैप्शन जोड़ें

प्राथमिक स्तर  (बालिका नामांकन) : 48.46 प्रतिशत
उच्च प्राथमिक स्तर (बालिका नामांकन) : 48.12 प्रतिशत
अनुसूचित जाति (बच्चों की नामांकन): 19.81 प्रतिशत
अनुसूचित जनजाति (बच्चों की नामांकन) :10.93 प्रतिशत
(सर्व शिक्षा अभियान के वर्ष 2009-10 के आंकड़े)


 

शनिवार, जून 11, 2011

टांय-टांय फिस हुए बाल श्रम रोकने के दावे

वल्र्ड डे एगेंस्ट चाइल्ड लेबर डे पर विशेष
अंतरराष्ट्रीय और  राष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रम को रोकने के लिए बड़े-बड़े कानून बनाए गए है। इसे रोकने के भी दावे किए गए। बावजूद इसके देश की राजधानी सहित सभी कोनों में बाल श्रम बदस्तूर जारी है। अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम संगठन ने बच्चों के अधिकारों के लिए एक प्रोटोकॉल बनाया है, ताकि पूरी दुनिया से बाल श्रम को खत्मा किया जा सके। इस प्रोटोकॉल का अनुमोदन करने वाले देश को बच्चों की बिक्री, बाल वेश्यावृति और बच्चों की प्रोर्नोग्राफी पर पूर्ण रोक लगानी होती है। इन सभी को अपराध की श्रेणी में शामिल करना होता है। मगर भारत ने अभी तक इस प्रोटोकॉल का अनुमोदन नहीं किया है। हाल ही में हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भी बाल अधिकारों पर सम्मेलन के वैकल्पिक प्रोटोकॉल का अनुमोदन कर दिया है। ऐसा करने वाला वह दुनिया का 144वां देश बन गया है।
  दुनिया के 126 देशों में बाल श्रम के खिलाफ एक साथ हुए प्रदर्शन के बाद अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने पहली बार वर्ष 2002 में 'वल्र्ड डे एगेंस्ट चाइल्ड लेबर" की शुरुआत की। इस दिन की शुरुआत इन बच्चों की परेशानियों को लोगों के सामने लाने के लिए की गई। आईएलओ (अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन) ने इस दिन की शुरुआत पूरी दुनिया में बाल श्रम के खिलाफ चल रहे मुहिम के लिए उत्प्रेरक के तौर पर काम करने के लिए किया। बाल अधिकारों पर सम्मेलन के वैकल्पिक प्रोटोकॉल का अनुमोदन वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में हुआ।
दिसम्बर वर्ष 2010 तक हमारे देश में करीब 6 करोड़ बाल श्रमिक हैं। इनमें से करीब एक करोड़ बच्चे बंधुआ मजदूर हैं। इस एक करोड़ में से 50 लाख तो बंधुआ मजदूरों के बच्चे होने के कारण जन्म से ही बंधुआ मजदूर हैं, जबकि शेष 50 लाख आैद्यौगिक ईकाइयों में काम करने वाले बच्चे हैं।" राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग की बेवसाइट पर मौजूद वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में बाल श्रमिकों की संख्या 1.27 करोड़ है। इसमें बंधुआ सहित तमाम तरह के बाल श्रमिक शामिल हैं।
फिलहाल, हमारे देश में राष्ट्रीय बाल आयोग के अलावा दिल्ली एवं बिहार सहित केवल नौ राज्यों में बाल अधिकार आयोग हैं। मगर इन बाल अधिकार आयोगों के पास पर्याप्त शक्तियां नहीं होने के कारण यह बाल श्रम को रोकने में लगातार नाकाम साबित हो रहे हैं। डॉक्टर आनंद कहती हैं, 'बाल श्रम को रोकना सिर्फ सरकार का काम नहीं है। इसे रोकने के लिए हमें खुद जागरूक होना पड़ेगा।"

नौ वर्ष पूर्व हुई शुरुआत

दुनिया के 126 देशों में बाल श्रम के खिलाफ एक साथ हुए प्रदर्शन के बाद अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने पहली बार वर्ष 2002 में 'वल्र्ड डे एगेंस्ट चाइल्ड लेबर" की शुरुआत की। आईएलओ (अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन) ने इस दिन की शुरुआत पूरी दुनिया में बाल श्रम के खिलाफ चल रहे मुहिम के लिए उत्प्रेरक के तौर पर काम करने के लिए किया। बाल अधिकारों पर सम्मेलन के वैकल्पिक प्रोटोकॉल का अनुमोदन वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में हुआ।

 

मंगलवार, मार्च 08, 2011

100वें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी 
                         98वें स्थान पर भारत



इस साल 31 जनवरी को जारी आईपीयू की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के मामले में पड़ोसी पाकिस्तान और नेपाल सहित बहुत से देशों से पीछे है और विश्व में इसका 98वां स्थान है। पाकिस्तान का विश्व में 51वां स्थान है जहां निचले सदन में 22.2 प्रतिशत और ऊपरी सदन में 17 प्रतिशत महिला सांसद हैं। इस मामले में नेपाल की स्थिति काफी बेहतर है और  उसने दुनिया में 18वां स्थान हासिल किया है। नेपाल की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33.3 फीसद है ।
विश्व में लोकतंत्र शांति और  सहयोग को बढ़ावा देने के लिए काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय समूह 'इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन" (आईपीयू) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में लोकसभा में महिलाओं का सिर्फ 11 प्रतिशत और  राज्यसभा में केवल 10.7 प्रतिशत प्रतिनिधित्व है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में लोकसभा के 544 सदस्यों में से सिर्फ 60 महिला प्रतिनिधि हैं, जबकि 242 सदस्यों वाली राज्यसभा में महिलाओं की संख्या केवल 26 है। भारत बेनिन और जॉर्डन एक ही स्थान पर हैं, लेकिन भारत इस मामले में पाकिस्तान से 47 और  नेपाल से 80 पायदान नीचे है।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की 100वी वर्षगांठ पर हिलेरी ने आज कहा, 'अमेरिका महिलाओं को विदेश नीति का आधार स्तंभ बनाए रखेगा। यह सिर्फ सही ही नहीं बल्कि बुद्धिमत्तापूर्ण भी है।" हिलेरी ने उर्दू सहित दस भाषाओं में जारी अपने बयान में कहा, 'महिलाएं और  लड़कियां हमारी अर्थव्यवस्था को चलाती हैं। वे शांति और समृद्धि का निर्माण करतीं हैं। उनमें निवेश का मतलब है समूची दुनिया की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक स्थायित्व और विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अधिकाधिक उन्नति में निवेश करना।""
उन्होंने कहा, 'वर्ष 1995 के बीजिंग सम्मेलन में मेरे संदेश, मानवाधिकार महिलाओं के अधिकार हैं और महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार हैं को मिली सकारात्मक प्रतिक्रि या से मैं बहुत खुश थी। लेकिन 16 साल बाद भी महिलाएं गरीबी, युद्ध, बीमारियों और भुखमरी से जूझ रहीं हैं।" हिलेरी ने कहा कि साफ है कि अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और आगे बढ़ने के लिए इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की जरुरत है।


"पंख भी है, खुला आकाश भी है, फिर ये न उड पाने की मजबूरी कैसी "
                         मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष

शनिवार, मार्च 05, 2011

बोफोर्स तोप सौदे का पूरा घटनाक्रम


बोफोर्स तोप दलाली : कब क्या हुआ

-24 मार्च 1986 : भारत सरकार और स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 155mm की 400 होवित्जर फील्ड गन की आपूर्ति के लिए 15 अरब अमेरिकी डॉलर का कॉन्ट्रैक्ट।
-16 अप्रैल 1987: स्वीडिश रेडियो ने रहस्योद्घाटन किया कि बोफोर्स खरीद में घूस के तौर पर एक बड़े भारतीय नेता और सेना के अधिकारियों को भारी रकम दी गई। स्विट्जरलैंड के बैंक खाते में जमा कराई गई दलाली की राशि।
-20 अप्रैल 1987: तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लोकसभा को आश्वस्त किया कि बोफोर्स मामले में कोई बिचौलिया नहीं था और किसी को कोई दलाली नहीं दी गई।
-6 अगस्त 1987 : मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन।
-22 जनवरी 1990 : सीबीआई ने बोफोर्स मामले में शिकायत दर्ज कर जांच शुरु की।
-17 फरवरी 1992 : पत्रकार बो एंडरसन ने एक सनसनीखेज रिपोर्ट में बोफोर्स में दी गई दलाली का खुलासा किया।
-12 जुलाई 1993 : स्विज अदालत ने कहा कि भारत को स्विस बैंक के वे दस्तावेज दिए जाएं, जो बोफोर्स की दलाली की रकम का खुलासा करते हैं।
-29/30 जुलाई 1993 : बोफोर्स कांड की दलाली में कथित रूप से मुख्य भूमिका निभाने वाला इटली का व्यावसायी क्वात्रोची गिरफ्तारी से बचने के लिए भारत से भागा।
-21 जनवरी 1997 : चार साल की कानूनी लड़ाई के बाद बर्न में स्विज बैंक के करीब 500 पेजों के गोपनीय दस्तावेज भारतीय अधिकारियों को सौंपे गए।
-30 जनवरी 1997 : सीबीआई ने जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन किया।
-10 परवरी 1997 : सीबीआई ने पूर्व सेना प्रमुख जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी से पूछताछ की।
-22 अक्टूबर 1999 : सीबीआई ने विन चड्ढा, क्वात्रोची, पूर्व रक्षा सचिव एसके भटनागर और बोफोर्स के पूर्व प्रमुख मार्टिन अर्बदो के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। आरोपियों में राजीव गांधी के नाम का हवाला ऐसे व्यक्ति के रूप में था, जिनका ट्रायल नहीं हो सकता। राजीव गांधी की 1991 में हत्या हो गई थी।
-7 नवंबर 1999 : ट्रायल कोर्ट ने क्वात्रोची के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया।
-जनवरी 2000 : क्वात्रोची ने सुप्रीम कोर्ट में वकील के जरिए अपील की कि उनके खिलाफ जारी गिरफ्तारी वारंट निरस्त किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सीबीआई के सामने पेश होने को कहा, जिससे उन्होंने इंकार कर दिया.
-18 मार्च 2000 : विन चड्ढा ट्रायल के लिए भारत आए।
-20 दिसंबर 2000 : क्वात्रोची की मलेशिया में गिरफ्तारी, लेकिन जमानत पर रिहा।
-24 अक्टूबर 2001: विन चड्ढा की हार्ट अटैक से मौत।
-2 दिसंबर 2002 : मलेशिया की अदालत ने भारत के क्वात्रोची के प्रत्यर्पण की मांग ठुकराई।
-28 जुलाई 2003 : ब्रिटेन ने क्वात्रोची के बैंक एकाउंट जब्त किए।
-4 फरवरी 2004 : दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी का नाम बोफोर्स आरोपियों की सूची से हटाने के आदेश दिए।
-31 दिसंबर 2005 : सीबीआई ने माना कि उन्हें क्वात्रोची के लंदन के दो बैंक एकाउंट की रकम और बोफोर्स की रिश्वत का कोई संबंध नहीं मिला।
-7 जनवरी 2006 : क्वात्रोची के लंदन बैंक के दो फ्रीज एकाउंट फिर शुरु हुए।

-6 फरवरी 2007 : क्वात्रोची को इंटरपोल के नोटिस के बाद अर्जेंटीना में गिरप्तार किया
-24 फरवरी 2007 : दिल्ली कोर्ट ने क्वात्रोची के खिलाफ नया गिरफ्तारी वारंट जारी किया।
-नवंबर 2008 : क्वात्रोची के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस वापस लिया गया।
-29 सितंबर 2009 :  सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वे क्वात्रोची के खिलाफ दर्ज मामला वापस ले रहे हैं।

-3 जनवरी 2010 : इंकम टैक्स ट्रिब्यूनल ने कहा कि क्वात्रोची और विन चड्ढा को 23 साल बोफोर्स तोप खरीदी में कमीशन का भुगतान किया गया। यह रकम करीब 41 करोड़ रुपए थ

सोमवार, फ़रवरी 28, 2011

आम बजट

कैसे तैयार होता है आम बजट


बजट के ज़रिए केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां तय करने का काम सरकार का एक कोर ग्रुप करता है. इस कोर ग्रुप में प्रधानमंत्री के अलावा वित्त मंत्री और वित्त मंत्रालय के अधिकारी होते हैं. योजना आयोग के उपाध्यक्ष को भी इस ग्रुप में शामिल किया जाता है

वित्त मंत्रालय की ओर से प्रशासनिक स्तर पर जो अधिकारी होते हैं उसमें वित्त सचिव के अलावा राजस्व सचिव और व्यय सचिव शामिल होते हैं. यह कोर ग्रुप वित्त मंत्रालय के सलाहकारों के नियमित संपर्क में रहता है. वैसे इस कोर ग्रुप का ढाँचा सरकारों के साथ बदलता भी है.
बैठक दर बैठक
बजट पर वित्त मंत्रालय की नियमित बैठकों में वित्त सचिव, राजस्व सचिव, व्यय सचिव, बैंकिंग सचिव, संयुक्त सचिव (बजट) के अलावा केंद्रीय सीमा एवं उत्पाद शुल्क बोर्ड के अध्यक्ष हिस्सा लेते हैं.
वित्तमंत्री को बजट पर मिलने वाले योजनाओं और खर्चों के सुझाव वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग को भेज दिए जाते हैं जबकि टैक्स से जुड़े सारे सुझाव वित्त मंत्रालय की टैक्स रिसर्च यूनिट को भेजे जाते हैं.
इस यूनिट का प्रमुख एक संयुक्त सचिव स्तर का अधिकारी होता है. प्रस्तावों और सुझावों के अध्ययन के बाद ये यूनिट कोर ग्रुप को अपनी अनुशंसाएँ भेजती है.
पूरी बजट निर्माण प्रक्रिया के समन्वय का काम वित्त मंत्रालय का संयुक्त सचिव स्तर का एक अधिकारी करता है.
बजट के निर्माण से लेकर बैठकों के समय तय करने और बजट की छपाई तक सारे कार्य इसी अधिकारी के ज़रिए होते हैं

भारी गोपनीयता
बजट निर्माण की प्रक्रिया को इतना गोपनीय रखा जाता है कि संसद में पेश होने तक इसकी किसी को भनक भी न लगे.

इस गोपनीयता को सुनिश्चित करने के लिए वित्त मंत्रालय के नार्थ ब्लाक स्थित दफ्तर को बजट पेश होने के कुछ दिनों पहले से एक अघोषित 'क़ैदखाने' में तब्दील कर दिया जाता है.
बजट की छपाई से जुड़े कुछ कर्मचारियों को यहां पुलिस व सुरक्षा एजेंसियों के कड़े पहरे में दिन-रात रहना होता है.
बजट के दो दिन पहले तो नार्थ ब्लाक में वित्त मंत्रालय का हिस्सा तो पूरी तरह सील कर दिया जाता है.
यह सब वित्त मंत्री के बजट भाषण के पूरा होने और वित्त विधेयक के रखे जाने के बाद ही समाप्त होता है.



रविवार, फ़रवरी 20, 2011

21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस

भारत : खतरे में 196 भाषाएं
अंगेजी के वर्चस्व और संरक्षण ने सर्वाधिक नुकसान भारत में बोली जाने वाली भाषाओं का किया है। भारत में स्थिति सर्वाधिक चिंताजनक है। देश में 196 भाषाएं लुप्त होने को हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, दुनियाभर में ऐसी सैंकड़ों भाषाएं हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं।
भारत के बाद दूसरे नंबर पर अमेरिका में स्थिति काफी चिंताजनक है, जहां ऐसी 192 भाषाएं दम तोड़ती नजर आ रही हैं। विश्व ईकाई द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भाषाएं आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों की तरह विलुप्त होती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार, दुनियाभर में 6900 भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन इनमें से 2500 भाषाओं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची में रखा गया है।
तो खत्म हो जाएंगी 2500 भाषाएं : रिपोर्ट कहती है कि ये 2500 भाषाएं ऐसी हैं जो पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी। अगर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2001 में किए गए अध्ययन से इसकी तुलना की जाए तो पिछले एक दशक में बदलाव काफी तेजी से हुआ है। उस समय विलुप्तप्राय: भाषाओं की संख्या मात्र नौ सौ थी लेकिन यह गंभीर चिंता का विषय है कि तमाम देशों में इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भारत, अमेरिका के बाद इस सूची में इंडोनेशिया का नाम आता है जहां 147 भाषाओं का आने वाले दिनों में कोई नाम लेवा नहीं रहेगा। संयुक्त राष्ट्र ने ये आंकड़े 21 फरवरी 2009 को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस की पूर्व संध्या पर जारी किए थे। भाषाओं के कमजोर पड़कर दम तोड़ने की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है। इनमें कैरेम भी एक ऐसी ही भाषा है जिसे उक्र ेन में मात्र छह लोग बोलते हैं। ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग ही बोलते हैं। इंडोनेशिया में इसी प्रकार लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लेागों की संख्या 150 से कम है। दुनियाभर में भाषाओं की इसी स्थिति के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1990 के दशक में 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी।
बांगलादेश ने दिखाई राह : बांग्लादेश में 1952 में भाषा को लेकर एक आंदोलन चला था। इसमें हजारों लोगों ने अपनी जान दी थी। इस आंदोलन के बारे में कहा जाता है कि इसी से बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन की नींव पड़ी थी आैर भारत के सहयोग से नौ महीने तक चले मुक्ति संग्राम की परिणति पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बनने के रूप में हुई थी। इस आंदोलन की शुरूआत तत्कालीन पाकिस्तान सरकार द्वारा देश के पूर्वी हिस्से पर भी राष्ट्र भाषा के रूप में उर्दू को थोपे जाने के विरोध से हुई थी।

नेहरू की वसीयत

 नेहरू की वसीयत
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी वसीयत भी लिखी थी जो कि आज तक खोली नहीं गई। यह एक बैंक में अब भी रखी हुई है। इसी बैंक में जलियांवाला कांड के समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे जनरल माइकल डायर का भी खाता था। डायर के लंदन चले जाने के बाद तक यह खाता जारी रहा। जलियांवाला बाग में गोली चलाने का आदेश देने वाले ब्रिागेडियर जनरल रेगीनाल्ड डायर का खाता भी उसी बैंक में था।
 लखनऊ में तैनात इलाहाबाद बैंक के सहायक महाप्रबंधक हरिमोहन ने बताया कि दस्तावेजों की खोजबीन के दौरान हमारे हाथ लगी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की वसीयत जो एक बंद लिफाफे में अब भी बैंक की सेफ कस्टडी में रखी हुई है। उन्होंने बताया कि उपलब्ध लेजरों के अनुसार पंडित नेहरू ही नहीं बल्कि उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरू का भी इलाहाबाद बैंक में खाता था। उस समय बैंक में केवल अंग्रेजों और तब के राजा महाराजाओं और  नवाब - तालुकेदारों के ही खाते खोले जाते थे और डिप्टी कलक्टर से नीचे के किसी आम भारतीय का खाता खोला ही नहीं जाता था।
      हरिमोहन ने वर्ष 1892 का एक लेजर दिखाया जिसमें प्रदेश के कई राजाओं, महाराजाओं और तालुकेदारों के खातों में हजारों रुपए के लेन-देन के ब्यौरे हैं और सुल्तानपुर अंचल के तत्कालीन राजा पट्टी के खाते में तो तीन लाख से अधिक रुपए जमा थे। जलियांवाला नरसंहार के समय पंजाब के गवर्नर रहे जनरल डायर के नाम पर बैंक में 10 हजार रुपए जमा थे और बैंक में उस नरसंहार के खलनायक  बिग्रेडियर जनरल रेगीनाल्ड डायर का भी खाता था।     
      उन्होंने बताया कि हम शीघ ही बैंक के लखनऊ स्थित सौ साल पुराने भवन में एक संग्रहालय बनाने जा रहे हैं। इसमें बैंक की स्थापना से लेकर आज तक के अनेक दुर्लभ लेजर और दस्तावेज आम जनता के लिए रखे जाएंगे, जिनके पन्नों पर इतिहास की अनेक रोचक जानकारी अंकित हैं।

1865 में हुई बैंक की स्थापना
    वर्ष 1865 में पांच यूरोपीय नागरिकों द्वारा इलाहाबाद बैंक की शुरुआत हुई। बैंक की पहली शाखा इलाहाबाद में वर्ष 1865 में पांच यूरोपीय लोगों ने खोली और दूसरी शाखा कोलकाता में खोली गई। इलाहाबाद बैंक मूलत: अंग्रेजों का बैंक था। इसकी शुरुआती शाखाएं अंग्रेजी साम्राज्य के लिए रणनीतिक और सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे कोलकाता, मेरठ, झांसी,  लखनऊ और कानपुर में खोली गई और  उन इलाकें में खोली गर्इं जहां अंग्रेज अधिकारियों के निवास थे और  जहां से उनका राजकाज चलता था।
     

बुधवार, फ़रवरी 16, 2011

सौ साल पुरानी हवाई डाक सेवा की कहानी दोहरायी गयी

 दुनिया की पहली हवाई डाक सेवा भारत मे
करीब सौ साल पहले 18 फरवरी, 1911 को इलाहाबाद से नैनी (इलाहाबाद) तक 6500 पत्रों को लेकर जाने वाली प्रथम आधिकारिक हवाई डाक सेवा हुई की गई थी। इसे फ्रांस के पायलट हेनरी पीक्वेट ने उड़ाया था। यह विश्व की सर्वप्रथम हवाई डाक सेवा का शुभारंभ था।


18 फरवरी, 1911 को उस इतिहास रचा गया जब हेनरी पीक्वेट ने इलाहाबाद में यमुना के दाहिने किनारे से एक हेवर हवाई जहाज ने उड़ान भरी और  यमुना नदी पार कर 6500 पत्र और पोस्टकार्ड वाली डाक थेले को नैनी रेलवे स्टेशन पर ड्राप किया था। इससे भारत विश्व में हवाई डाक पहुंचाने वाला पहला देश बन गया था। हवाई डाक सेवा के सौ वर्ष पूरे होने की स्मृति में डाक विभाग द्वारा आयोजित समारोह में राज्यपाल जोशी ने बमरौली हवाई अड्डे से चेतक हेलीकाप्टर को झंडी दिखाकर रवाना किया। 500 पत्रों से भरे डाक थैले को ले जाने वाले इस चेतक के पायलट विंग कमांडर मुकेश कोठारी एवं स्क्वाड्रन लीडर अंशुल सक्सेना थे। उड़ान भरने के बाद हेलीकाप्टर पीएसी की ग्राउन्ड नैनी में पत्रों के थैले को डाक विभाग को सौंपा। डाक विभाग ने इस अवसर पर चार डाक टिकटों का एक सेट जारी किया। इसका विमोचन राज्यपाल ने किया।


हवाई डाक सेवा के 100 वर्ष पर चार डाक टिकटों के सेट प्रथम दिवस आवरण और मिनी शीट के माध्यम से डाक विभाग ने यमुना नदी के ऊपर से की गई प्रथम हवाई डाक उड़ान के इतिहास को उड़ान के पथ के साथ-साथ इस हवाई जहाज और पायलट को अंकित किया है। पृष्ठभूमि में इलाहाबाद का किला है। प्रथम दिवस आवरण पर विगत वर्षों में जारी किये गए डाक टिकटों के कोलाज को दर्शाया गया है।

मंगलवार, फ़रवरी 15, 2011

राह दिखाते शास्त्री जी.....

देश के दूसरे प्रधानमंत्री की जीवन शैली आज के दौर में दूसरे राजनेताओं के लिए एक नेक राह दिखाने का काम कर सकती है। उनके बेटे सुनील शास्त्री द्वार लिखी गई पुस्तक 'लाल बहादुर शास्त्री पास्ट फारवर्ड" के कुछ अंश...


'स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब बाबूजी फैज़ाबाद जेल में बंद थे आैर मां उनके लिए दो आम छिपा कर ले गई थी, तब वह काफी नाराज हुए थे। वह इसलिए नाराज हुए थे, क्योंकि कैदियों को बाहर से भोजन उपलब्ध कराना अवैध है। लालबहादु ने रेल मंत्री के रूप में ट्रेनों में एक सामान्य नागरिक की तरह यात्रा की। पुस्तक में बचपन की कई घटनाओं का जिक्र किया है। इसी संदर्भ में एक घटना का जिक्र करते हुए सुनिल ने लिखा, 'मैं बचपन में बड़ी गाड़ी में सफर करने का सपना देखा करता था जो मेरे पिता के दर्जे के अनुरूप हो। बाबूजी को उपयोग के लिए सेवरले अंपाला कार मिली थी।"

'एक दिन मैंने बाबूजी के निजी सचिव से सेवरले अंपाला गाड़ी को घर लाने का आग्रह किया। हमने कार चालक से चाबी मांगी और  उसे चला कर ले गए।" बाबूजी ने कार के चालक से नाराजगी भरे अंदाज में पूछा, 'क्या आप अपने साथ लॉग बुक रखते हैं।" जब चालक ने नकारात्मक जबाव दिया तब उन्होंने पिछले दिन कार द्वारा तय की गई दूरी की जानकारी मांगी। चालक ने जब दूरी 14 किलोमीटर बताई जब उन्होंने मां से निजी सचिव को इसका भुगतान करने को कहा जो राशि सरकारी खाते में गई।

पुस्तक में एक घटना का जिक्र है कि लालबहादुर शास्त्री शायद जीवन में उस दिन पहली बार रोए थे। शास्त्री भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 में हुए युद्ध के दौरान घायल सैनिकों को देखने अस्पताल गए थे। अस्पताल में एक घायल सैनिक ने कहा कि वह आज उठने की स्थिति में भी नहीं है, ताकि वह अपने प्रिय प्रधानमंत्री को 'सलाम" कर सके। इतना सुनते ही वह फूट फूट कर रोने लगे थे।

रविवार, फ़रवरी 13, 2011

फूल के रंगों में छिपे प्रेम के रंग
वेलेंटाइन डे पर लोग कुछ न कुछ खास तोहफा देना चाहते हैं। आप भी देना चाहते होंगे। बहुत अच्छी बात है, मगर इन तोहफों की भीड़ में उनके लिए फूल ले जाना मत भूलिएगा। क्योंकि फूल ही हैं जो आपके दिल की बात उन तक पहुंचाते हैं। फूल बगैर एक शब्द बोले, आसानी से आपके मन का हर राज खोल देते हैं।



वेलेंटाइन डे पर अगर आप यह सोच कर परेशान हैं कि लाल गुलाब के अलावा अगर अपने प्रेमी को कुछ नया देना चाहते हैं तो क्या दें ? आपकी यह परेशानी भी दूर हो सकती है। सफेद गुलाब बढि़या विकल्प है। वैसे सफेद गुलाब शांति के लिए माना जाता है। लेकिन अगर आप किसी को खूबसूरत कहना चाहते हैं तो सफेद गुलाब दें। अगर आप यह कहना चाहते हैं कि आपसे बेहतर कोई नहीं। वह आपके लिए सबसे खास हैं। आपके जीवन में उनके बगैर एक खालीपन सा है तो नारंगी रंग का गुलाब दें। अगर शादी के लिए प्रोपोज करना चाहते हैं तो 'गाढ़े लाल रंग" के गुलाब के साथ अंगूठी दें। फिर आप सोच क्या रहे हैं ? बस उठिए आैर प्यार का इजहार कर दीजिए।

शुक्रवार, फ़रवरी 11, 2011

गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के बाद गर्भपात पर दिया फतवा

 भ्रूण का गर्भपात कराना भी हराम : देवबंद



दारुल उलूम देवबंद ने अपने नए फतवे में गर्भ में पल रहे तीन महीने से ज्यादा के भ्रूण का गर्भपात कराने को भी हराम बताया है।


गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के पहले हकीम से पूछने का फतवा देने के बाद देवबंद ने कहा है कि यदि गर्भ में पल रहे भ्रूण की उम्र तीम माह से कम है तो गर्भपात कराने के पहले भी हकीम या किसी 'पवित्र मुस्लिम चिकित्सक" से सलाह लें। लेकिन तीन महीने से ज्यादा के भ्रूण का गर्भपात कराने को हराम बताया है। देवबंद ने हलाल आैर हराम संबंधी फतवों की श्रेणी में पूछे गए एक सवाल के जवाब में यह फतवा दिया है।


मुस्लिम संस्थान से पूछा गया है, 'हमारे दो बच्चे हैं। हमारा छोटा बच्चा लगभग 11 महीने का है। मेरी पत्नी एक बार फिर से गर्भवती है। चिकित्सक ने उसकी शारीरिक स्थिति को देखते हुए उसे अगले बच्चे के लिए लगभग 30 महीने का इंतजार करने को कहा है, इसलिए वह गर्भपात कराना चाहती है। क्या गर्भपात की इजाजत है ?" इसके जवाब में फतवा दिया गया है, 'अगर कोई पवित्र मुस्लिम चिकित्सक यह कहे कि महिला गर्भावस्था आैर प्रसव का दर्द सहन करने में सक्षम नहीं है, तो तीन महीने से कम के भूण का गर्भपात कराया जा सकता है, लेकिन अगर भूण तीन महीने से ज्यादा का हो, तो गर्भपात कराना पूरी तरह हराम है।"


हालांकि चिकित्सकों की दृष्टि में देवबंद का यह फतवा भी अनुचित है। चिकित्सकों का मानना है कि अगर कोई प्रशिक्षित चिकित्सक गर्भपात की सलाह देता है तो वह महिला की हालत देख कर ही इसके बारे में कहता है, जबकि 'नीम-हकीम" किसी महिला की हालत का बेहतर तरीके से अंदाज नहीं लगा सकते। स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. फौजिया खानम कहती हैं, 'यह बात सही है कि तीन महीने से ज्यादा का भूण होने पर गर्भपात महिला के लिए खतरनाक साबित हो सकता है, लेकिन यह बात किसी तरह से गले नहीं उतरती कि तीन महीने से कम का भ्रूण होने पर भी हकीम की सलाह पर ही गर्भपात कराएं।"


डॉ. फौजिया परामर्श देती हैं कि अगर कोई अपने परिवार की महिला की जान को जोखिम में नहीं डालना चाहता, तो उसे महिला को किसी प्रशिक्षित चिकित्सक के पास ही ले जाना चाहिए। देवबंद ने इसके पहले अपने एक फतवे में कहा था कि गर्भधारण रोकने के लिए गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल भी हकीम से पूछ कर ही करना चाहिए। अगर हकीम इसकी इजाजत देता है, तो गर्भनिरोधक का इस्तेमाल हराम नहीं है ।


आज समाज न्यूज़ पेपर में ‘media-Input’

आज समाज न्यूज़ पेपर  में ‘media-Input’

शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

थैंक ए मेल पर्सन डे पर खास

.... अब डाकिया नहीं लाते पैगाम



एक जमाना था जब किसी अपने का संदेश पाने को बेकरार निगाहें देहरी तक आने वाले रास्ते पर दूर तक टिकी रहती थीं। साइकिल की घंटी की आवाज कानों में पड़ते ही पैर रोके नहीं रुकते थे। खाकी वर्दी वाले डाकिए से अपनों का पैगाम पाकर मन मयूर नाच उठता था और  डाकिए को गुड़ के साथ ठंडा पानी या चाय के साथ मठरी खिलाकर उसका आभार प्रकट किया जाता था।

अब दौर बदल गया है। आज फेसबुक और  ई-मेल के जमाने में चिट्ठियों का चलन नहीं के बराबर रह गया है, लेकिन दूरदराज के गांव देहात में आज भी चिट्ठी लाने का काम डाकिया ही करता है। चिट्ठी से भी ज्यादा परदेस में नौकरी करने वाले बेटे का मनीआर्डर आए तो मां-बाप के चेहरे खिल जाते हैं। घूंघट की ओट से झांकती बहुरिया की आंखों में भी डाकिए के लिए आभार नजर आता है।

सर्दी, गर्मी, बरसात में हर तरह की दुष्वारियों के बीच साइकिल पर झोला टांगे हर रोज आने वाला डाकिया सिर्फ संदेशवाहक ही नहीं बल्कि सुख-दुख का साथी भी होता है और  शुक्रवार को डाकिए को धन्यवाद देने का दिन है।

गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

पर्यावरण को बचाने के प्रयास


आद्र्र भूमि में छिपे जीवन के राज
 
 दुनियाभर में पर्यावरण को बचाने के प्रयासों के तहत आद्र्र भूमि (वेटलैंड) संरक्षण सबसे अहम पहलू है। पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि जैवविविधता और भोजन श्रृंखला को सुचारू तौर पर चलाने का लक्ष्य वेटलैंड संरक्षण के बिना नहीं पाया जा सकता। हमारे देश में दलदल और मैंग्रोव के तौर पर आद्र्र भूमि मौजूद है, जिन्हें बचाने के लिए पर्यावरण कार्यकर्ता लगातार प्रयासरत हैं।

वेटलैंड किसी जलक्षेत्र के आसपास की आद्र्र भूमि को कहा जाता है। ऐसी भूमि सूखे की स्थिति में पानी को बचाने में मदद करते हैं। इतना ही नहीं बाढ़ के हालात में यह पानी का स्तर कम करने और  सूखी मिट्टी को बांध कर रखने में मददगार होते हैं। मुंबई और  दिल्ली जैसे महानगरों में ऐसी भूमि को सबसे तेजी से नुकसान पहुंच रहा है। जलस्रोत  के बहुत नजदीक तक निर्माण कार्य होने से आद्र्र भूमि के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं।

नियमानुसार किसी भी जलीय क्षेत्र के आसपास निर्धारित दूरी तक निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए, लेकिन शहरों में तो जल के स्रोत  की छाती चीर कर भी इमारतें बनाई जा रही हैं। अगर अब भी हम नहीं चेते तो न तो हम सूखे से बच पाएंगे और न ही बाढ़ से। आद्र्र भूमि न केवल मनुष्य को प्राकृतिक आपदा के कहर से बचाता है, बल्कि वन्यजीवों के जीवन में भी इनका अहम स्थान है।

आद्र्र भूमि वन्य प्राणियों के लिए अहम 'फीडिंग, ब्रीडिंग  और ड्रिंकिंग " क्षेत्र हैं। ऐसी भूमि के नमूनों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यह जैवविविधता और भोजन श्रृंखला का सबसे नायाब उदाहरण होता है। भारत के उड़ीसा महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे कई प्रदेशों में आद्र्र भूमि संरक्षण के लिए विभिन्न परियोजनाएं चल रहीं हैं, लेकिन इनका हश्र भी दूसरी सरकारी योजनाओं की तरह ही हो रहा है। अगर यही स्थिति रही तो हमारे पास जैवविविधता को दिखाने के लिए कोई साधन नहीं बचेगा।
विश्व वेटलैंड दिवस : हर साल दो फरवरी को मनाया जाता है। इसी दिन 1871 में ईरान के रामसर शहर में आद्र्र भूमि पर एक समझौते (कंवेंशन ऑन वेटलैंड) पर हस्ताक्षर हुए थे। इसके तहत दुनियाभर में जैवविविधता संरक्षण के लिए आद्र्र भूमि को बचाने के विभिन्न उपायों पर विचार-विमर्श हुआ। रामसर सम्मेलन में वेटलैंड को ऐसी दलदली भूमि के तौर पर परिभाषित किया गया था, जहां जलीय स्रोत का पानी स्थाई तौर पर संरक्षित रहता है। इस तरह नदियों तालाबों से लेकर समुद्रों तक के आसपास की भूमि वेटलैंड के दायरे में आती है।