मंगलवार, सितंबर 28, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव


बिहार विधानसभा   चुनाव    

बिहार में 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए छह चरणों में चुनाव होंगे। इनकी शुरूआत 21 अक्टूबर से होगी।
     



विधानसभा :  कुल 243  विधायकों मे 110 दागी 


 विधायकों पर आपराधिक आरोप

शनिवार, सितंबर 25, 2010

अव्यवस्था की भेंट चढ़े गजराज

कुछ खास

रेलवे पर क्षुब्ध हुए पर्यावरण मंत्री : पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी रेल पटरियों पर बृहस्पतिवार को हुई सात हाथियों की मौत से क्षुब्ध पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि वह जल्द ही रेलवे बोर्ड से मिलेंगे, ताकि हाथियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।  उन्होंने घटना पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि विगत समय में वह रेल मंत्री ममता बनर्जी आैर रेलवे बोर्ड के अधिकारियों को कई पत्र लिख चुके हैं। ऐसे हादसों को टालने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर चर्चा कर चुके हैं।
 टास्क फोर्सकी सिफारीश :  हाल में पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट में हाथी को राष्ट्रीय पशु धरोहर का दर्जा देने तथा एक जंगल से दूसरे जंगल में उनके आने जाने के रास्तों की रक्षा करने के लिए कदम उठाने की सिफारिश की गई है।
   

कारण तथा निदान
 -पश्चिम बंगाल के  प्रधान मुख्य वन संरक्षक अतनु राहा ने कहा कि मीटर गेज को ब्राड गेज में बदले जाने के बाद हाथियों के ट्रेन से कुचलकर मरने की घटनाएं बढ़ गई हैं। दरअसल जब मीटर गेज था तब कुछ ट्रेनें चलती थी आैर हाथियों को उनके गुजरने का समय मालूम होता था, लेकिन गेज परिवर्तन के बाद हर समय मालगाडियां गुजरती रहती है, जिससें हाथी संशय में पड़ जाते हैं आैर ऐसे हादसे होते हैं।
-गेज परिवर्तन के खिलाफ वर्ष 2001 में जनहित याचिका दायर करने वाले डब्ल्यूपीएसआई के पूर्वी क्षेत्र के निदेशक कर्नल एस बनर्जी ने कहा कि उनकी आशंका अब सही साबित हो रही है। हाथियों को ऐसे हादसों से बचाने के लिए उपरिगामी ट्रेन का सुझाव आया है।
-संयोग से जलपाईगुड़ी क्षेत्र हाथी गलियारे के रूप में घोषित है आैर हाथियों को सुरक्षित रूप से गुजरने देने के लिए रेलवे से ट्रेनों की गति धीमी करने जैसे विशेष कदम उठाने को कहा गया है।
23 वर्षों में 150 गजराज चढ़े भेंट

    

    










 राज्य               शिकार हुए गजराज
    असम   :            54
    प. बंगाल :        39
       उत्तराखंड :    21
        झारखंड :     15
    तमिलनाडु :   09
   उत्तर प्रदेश :  06
           केरल  :   03
         उड़ीसा :      03
-हादसे जनवरी से जून के बीच रात के समय ज्यादा हुए
-जब जंगली जानवर भोजन-पानी की तलाश में निकलते हैं
-जंगलों में रात के समय ट्रेनों की गति कम रखनी चाहिए
-घटनाओं को टालने के लिए ट्रेन के ड्राइवर, गार्ड आैर मुसाफिरों को भी संवेदनशील बनाने की जरूरत
(रुाोत :  पर्यावरण मंत्रालय की 'ऐलीफेंट टास्क फोर्स" की नवीनतम रिपोर्ट)

कमेंट........
आखिर कौन है जिम्मेदार ?  एक साथ सात हाथियों की रेलवे पटरियों पर मौत की आवाज राजनीतिक गलियारों में नहीं सुनाई पड़ी।  पश्चिम बंगाल की जलपाइगुड़ी की घटना पर किसी ने हो हल्ला नहीं किया। पशुओं पर दया दिखाने वाली मेनका गांधी के सूर भी इस बार नहीं सुनाई पड़े। राजनीतिक दल भी मौन हैं, क्यों कि इससे उनको कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिलने वाला है। फिर वे अपनी मेहनत आैर ऊर्जा क्यों अनायास बेकार करते। फिलहाल पर्यावरणविदों ने जलपाईगुड़ी की घटना को हत्या करार दिया है आैर रेलवे के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की है

शुक्रवार, सितंबर 24, 2010

विवाद के 157 साल

कुछ खास
    

विवाद की जड़ 
1528 :  मुगल बादशाह बाबर ने उस भूमि पर एक मस्जिद बनवाई। हिंदुओं का दावा है कि वह भगवान राम की जन्मभूमि है आैर वहां पहले एक मंदिर था।
1853 : विवादित भूमि पर सांप्रदायिक हिंसा संबंधी घटनाओं का दस्तावेजों में दर्ज पहला प्रमाण।
1859 : ब्रिाटिश अधिकारियों ने एक बाड़ बनाकर पूजास्थलों को अलग-अलग किया। अंदरूनी हिस्सा मुस्लिमों को आैर बाहरी हिस्सा हिन्दुओं को मिला।
1885 : महंत रघुवीर दास ने एक याचिका दायर कर रामचबूतरे पर छतरी बनवाने की अनुमति मांगी, लेकिन फैजाबाद की जिला अदालत ने अनुरोध खारिज किया।


देश का सबसे बड़ा मुकदमा
-1950, 16 जनवरी को मुकदमें की प्रक्रिया शुरू ।
-21 साल चली सुनवाई।
-40 अधिवक्ताओं ने इस मामले में जिरह की। (पश्चिम बंगाल के पूर्व सीएम आैर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ शंकर रे, भाजपा के वरिष्ठ नेता तथा सुप्रीम कोर्ट के वकील रवि शंकर प्रसाद भी शामिल)
-89 गवाहों के 14,036 पृष्ठ के बयान दर्ज हुए। 
-इस दौरान 13 बार विशेष पूर्णपीठ तथा 18 न्यायाधीश बदले गए।
चार अहम बिंदु
1-विवादित धर्मस्थल पर मालिकाना हक किसका है ?
2-श्रीराम जन्मभूमि वहीं है या नहीं ?
3-क्या 1528 में मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी थी ?
4-यदि ऐसा है तो यह इस्लाम के परंपराओं के खिलाफ है या नहीं ?
गुम्बद के नीचे में रखे गए रामलला
-1949 : 22/23 सितम्बर की रात में विवादित ढांचे के तीन गुम्बदों में से बीच वाले में रामलला की मूर्ति रख दी गई।
-1950 : 16 जनवरी  को रामलला की पूजा अर्चना के लिए को गोपाल सिंह ने फैजाबाद की जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया।
-कोर्ट ने पूजा अर्चना की इजाजत दे दी। इसके साथ ही कोर्ट ने वहां रिसीवर भी नियुक्त कर दिया।
 -1959 : निर्मोही अखाडे़ ने रिसीवर की व्यवस्था समाप्त कर विवादित स्थल को उसे सौंपने की मांग की।
-1961 : सुन्नी वक्फ बोर्ड आैर मोहम्मद हाशिम अंसारी ने रामलला की मूर्ति हटाने के लिए वाद दायर किया।
-1989 : देवकी नन्दन अग्रवाल ने विवादित धर्मस्थल को रामलला विराजमान की संपत्ति घोषित करने की याचिका हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में दाखिल की।
-1989 : फैजाबाद में चल रहे सारे मामलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के हवाले किया गया।
-सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने अपने पक्ष से 36 गवाहों को पेश किया। इसमें आठ बहुसंख्यक सुमदाय से थे।
-वक्फ बोर्ड की तरफ से सर्वाधिक 288 पृष्ठ की गवाही सुरेश चन्द्र मिश्र की रही, जबकि सबसे कम 64 पृष्ठ में रामशंकर उपाध्याय ने अपना बयान दर्ज कराया।
मामले में नया मोड़
-1986 : 1 फरवरी  को जिला जज कृष्ण मोहन पाण्डेय ने विवादित ढांचे के गेट पर लगे ताले को खोलने का आदेश दिया।
-1986 : 3 फरवरी  को अंसारी ने हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में इस आदेश को  चुनौती दी।
-1992 : 6 दिसम्बर को विवादित मस्जिद ढहाई गई। देश भर में सांप्रदायिक दंगे, 2000 से अधिक लोगों की जानें गर्इं।
अधिग्रहण के खिलाफ मुकदमा
-1993 : 7 जनवरी  को केंद्र ने 67 एकड़ से अधिक जमीन का अधिग्रहण कर लिया।
-अधिग्रहण के इस अधिनियम के खिलाफ सेन्ट्रल सुन्नी बोर्ड, अक्षय ब्राह्चारी, हाफिज महमूद अकलाख आैर जामियातुल उलेमा-ए-हिन्द ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
-हाईकोर्ट ने सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट भेज दिया।
-1994 : 24 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले से जुड़े सन्दर्भ को राष्ट्रपति को वापस भेज दिया।
-1995 : जनवरी में हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में फिर से  सुनवाई शुरू हुई।
-2002 : मार्च में मामले को जल्दी निपटाने के लिए हाईकोर्ट का प्रतिदिन सुनवाई करने का फैसला।
-2003 : 5 मार्च का अधिग्रहीत परिसर में पुरातात्विक खुदाई के आदेश दिए।
-22 अगस्त को पुरातत्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी। खुदाई में प्राचीन मूर्तियों आैर कसौटी के पत्थरों के अवशेष मिलने का दावा।
-2006 : 11 अगस्त को मुस्लिम पक्ष की ओर से पुरातात्विक रिपोर्ट के खिलाफ आपत्तियों के सम्बंध में गवाहियों का क्रम समाप्त हुआ।
-2010 : 26 जुलाई को सुनवाई पूरी हुई। कोर्ट ने दोनो पक्षों के वकीलों को बुलाकर सुलह-समझौते से निपटाने का अवसर दिया।
-15 सितम्बर : इस सम्बंध में रमेश चन्द्र त्रिपाठी की अर्जी पेश।
-17 सितम्बर : न्यायमूर्ति एसयूखान आैर न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने त्रिपाठी की याचिका खारिज की। उन पर हर्जाने के रूप में 50 हजार रुपए जुर्माना ठोक दिया।
-पीठ के तीसरे न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने दोनों की राय से अपने को अलग किया। श्री शर्मा ने हर्जाने की राशि तीन हजार कर दी तथा पक्षकारों को सुलह के लिए 23 सितम्बर तक का समय दिया।
-21 सितम्बर : त्रिपाठी ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने याचिका पर सुनवाई से इनकार किया। याची को दूसरी खंडपीठ में जाने की सलाह दी।
-दूसरी पीठ ने हाईकोर्ट के 24 सितम्बर को फैसला सुनाए जाने के आदेश को 28 सितम्बर तक स्थगित कर दिया।


17 साल बाद लिब्राहान आयोग की रिपोर्ट
1992 :  16 दिसंबर को विवादित ढांचे को ढहाए जाने की जांच के लिए न्यायमूर्ति लिब्राहान आयोग का गठन। छह माह के भीतर जांच खत्म करने को कहा गया।
2009 : जून में 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस बीच आयोग का कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया।

शुक्रवार, सितंबर 17, 2010

..जब 'छोटे लोहिया' से परास्त हुए वीपी

इतिहास से दिलचस्प मुकाबला

लोकसभा चुनाव के कुछ उन मुकाबलों में जिन्हें रोचक कहा जा सकता है, 'छोटे लोहिया' की राजा मांडा से भिडंत भी शामिल है. इसमें 'छोटे लोहिया' कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र ने वीपी सिंह को परास्त किया था. यह 1977 का आम चुनाव था. इलाहबाद संसदीय सीट से प्रमुख मुकाबला कांग्रेस और भालोद के बीच था. वीपी कांग्रेस के उम्मीदवार थे. 'छोटे लोहिया' ने राजा को करीब 90 हजार मतों के अंतर से पराजित किया. जनेश्वर को 190697 और वीपी को 100709 मत मिले. दरअसल, 1977 में कांग्रेस की फिजां गड़बड़ थी. जनता पार्टी की लहर थी. वीपी चुनाव हार गए. वीपी के राजनीतिक करियर की शुरुआत छात्र राजनीति से हुई. 1947 में वे इलाहाबाद विवि छात्रसंघ के उपाध्यक्ष चुने गए. स्वराज भवन में उनका आना-जाना   नेहरू के समय से ही था. तब उनकी पहचान बतौर 'राजा मांडा' थी. वह 1969 में विधानसभा के लिए चुने गए. 1971 में पहली बार पांचवी लोकसभा के लिए इलाहाबाद के फूलपुर क्षेत्र से निर्वाचित हुए. 1976 में पहली बार वे केंद्र में मंत्री बने. 1980 में वे फिर लोकसभा के लिए चुने गए. बीच में ही उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने उप्र का मुख्यमंत्री बनाने का एलान किया. उस समय इंदिरा गाँधी प्रधानमन्त्री थीं. इंदिरा जी की मौत के बाद 1984  के आम चुनावों में कांग्रेस की बंपर मतों से जीत हुई. राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री हुए. वीपी सिंह वाणिज्य, वित्त और बाद में रक्षामंत्री बने. कालान्तर में राजीव से अनबन होने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अलविदा कर लिया. 1988 में इलाहाबाद सीट पर उपचुनाव हुआ. वीपी स्वतंत्र उम्मीदवार लड़े और विजयी हुए. 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर जनता दल का गठन किया. कांग्रेस के लिए संकट बने. जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. केंद्र में जनता दल की सरकार बनी. वीपी सिंह देश के दसवें प्रधानमन्त्री बने.

रविवार, सितंबर 12, 2010

...आक्रोश की बलि चढ़े बलिराम

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलिराम भगत भी जनता के आक्रोश ने नहीं बचे. छठी  लोकसभा के चुनाव में उन्हें बिहार की आरा संसदीय सीट से पराजय का सामना करना पड़ा. वह कुल छह बार लोकसभा के लिए चुने गए. 1952 में इस क्षेत्र से वह पहली बार चुनाव जीते. इसके बाद से वह लगातार दूसरी,  तीसरी,  चौथी और पांचवी लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए. जनता लहर ने उन्हें 1977 में हरा दिया. उनका मुकाबला लोकदल के प्रत्याशी चंद्रदेव वर्मा से था. लोकदल को 3,23,913 और कांग्रेस के पक्ष में 1,13,036 मत पड़े. भगत 21 हजार से ज्यादा मतों के अंतर से पराजित हुए. बलिराम भगत की उनके लम्बे राजनीतिक करियर में यह पहली हार थी. 1980 के आम चुनाव में उन्हें इस क्षेत्र से दोबारा पराजय का सामना करना पड़ा था, लेकिन बिहार की सीतामढ़ी संसदीय सीट से उपचुनाव जीत कर वे सदन पहुचने में कामयाब रहे.
1939 में मात्र 17 साल की उम्र में बलिराम भगत कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए. 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वह कॉलेज की शिक्षा छोड़, स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए.  1944 में अखिल भारतीय विद्यार्थी कांग्रेस (एआईएससी) की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही. 1946 में वह बिहार में एआईएससी के महासचिव बने. 1950  में भगत पहली बार प्रांतीय संसद के लिए निर्वाचित हुए. वह पहली बार 1956 में पंडित नेहरु के मंत्रिमंडल में शामिल हुए और वित्त उपमंत्री बने. वह लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की कैबिनेट में भी कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. जनवरी 1976 में वह पांचवी लोकसभा के स्पीकर चुने गए. जीएस ढिल्लन के त्यागपत्र के बाद बलिराम भगत स्पीकर निर्वाचित हुए. उस समय देश में इमरजेंसी लग चुकी थी. बतौर लोकसभा अध्यक्ष उनका 14 माह का कार्यकाल एतिहासिक था. बतौर स्पीकर सांसदों के 'कालिंग अटेंशन'  के समय को उन्होंने घटाकर तीन- चार मिनट किया. इससे पहले इसकी अवधि 30 से 35 मिनट की थी.

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

कमल से पिट गए थे कमलनाथ

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले



इंदिरा गाँधी के तीसरे बेटे  को भी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था. यह तीसरा बेटा और कोई नहीं, बल्कि वरिष्ट कांग्रेसी नेता कमलनाथ हैं. इंदिरा गाँधी ने 1980 में मध्यप्रदेश  के छिंदवाड़ा जिले में एक जनसभा में कमलनाथ को अपना तीसरा बेटा कहा था. देश में सातवीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. इस चुनाव में कमलनाथ छिंदवाड़ा संसदीय सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी थे. यह उनका पहला चुनाव था. कमलनाथ चुनाव जीत गए. अगर 1997 के उपचुनाव को छोड़ दिया जाए तो इस सीट से उनकी जीत का सिलसिला कभी नहीं थमा. यहाँ से वे लगातार साथ बार चुनाव जीत चुके हैं. हवाला काण्ड में नाम आने के कारण 1996 में कमलनाथ यहाँ से चुनाव नहीं लड़ सके. इस सीट से उनकी पत्नी अलका उम्मीदवार थीं. अलका चुनाव जीतीं और यह सीट कांग्रेस के खाते में गयी. 1997 में अलका ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद यहाँ उपचुनाव हुए. इसमें कमलनाथ का मुकाबला कमल से था. सुन्दरलाल पटवा भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी थे. मुकाबला दिलचस्प था. लोगों के यहीं के विपरीत चुनाव के नतीजे आये. कमल ने कमलनाथ को परास्त कर दिया. 37 हजार से ज्यादा मतों के अंतर से कमलनाथ पराजित हुए. हालांकि, 1998 के आम चुनावों में कमलनाथ यहाँ से फिर निर्वाचित हुए. फिर वे लगातार चुने गए. १९९१ में वे केंद्र में पीवी नर्सिंघ्राव की सरकार में पहली बार मंत्री बने थे जब मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे. आज मनमोहन सिंह सरकार में कमलनाथ वाणिज्य और ओद्योगिक मंत्री हैं.
छिंदवाड़ा में कांग्रेस का डंका: देश में ऐसी कम ही संसदीय सीटें होगी, जहाँ से कांग्रेस को कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा हो. मात्र एक उपचुनाव के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मध्यप्रदेश का छिंदवाड़ा क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जहाँ से कांग्रेस को कभी पराजय का मुह नहीं देखना पड़ा. यह सही मायने में कांग्रेस का गढ़ है. अब तक 14 आम चुनावों में इस सीट से कांग्रेस को कभी शिकस्त नहीं मिली. यहाँ तक कि 1977 की जनता लहर में भी इस सीट से कांग्रेस का उम्मीदवार विजयी हुआ था. 

जब बहुगुणा से हारीं शीला

इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
  1977 के लोकसभा चुनाव में लखनऊ संसदीय सीट पर मुकाबला दिलचस्प था. यह मुकाबला भी जो दो दिग्गजों के बीच था. शीला कौल कांग्रेस की प्रत्याशी थीं. हेमवती नंदन बहुगुणा भारतीय लोकदल के उम्मीदवार थे. 1957 से 1971 यानी दूसरी से पांचवी लोकसभा चुनावों तक इस क्षेत्र से तीन बार कांग्रेस की विजय हुई थी. पांचवी लोकसभा के लिए शीला कौल यहाँ से चुनी गयीं थीं. लखनऊ की जनता के लिए शीला कौल अनजान नहीं थीं. विपक्ष की निगाह शीला और लखनऊ संसदीय सीट पर थी. इस सीट पर विपक्ष की नजर इसीलिए भी थी क्योकि शीला और इंदिरा गाँधी के पारिवारिक रिश्ते थे. वे गांधी परिवार के काफी नजदीक थीं. विपक्ष का एकमात्र मकसद इस सीट से शीला को परास्त करना था. उनको हराने के लिए उसे एक मजबूत उम्मीदवार की तलाश थी. राजनीति का कुशल खिलाडी होने के कारण बहुगुणा  को शीला के खिलाफ लखनऊ से उतारा गया. विपक्ष अपने मिशन में सफल रहा. बहुगुणा को 242362 और शीला को 77017 मत मिले. करीब 165345 मतों के अंतर से शीला पराजित हुईं. लोकसभा चुनाव के पहले तक शीला की पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में थी. 1971 में वे कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के रूप में पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुईं. 1980 में सातवीं लोकसभा के लिए लखनऊ सीट से विजयी हुईं. केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई और शीला पहली बार केंद्रीय मंत्री बनीं. वे दो बार रायबरेली संसदीय सीट से भी निर्वाचित हुईं. 1995 में वे हिमाचल प्रदेश की गवर्नर बनीं. बहुगुणा ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ट्रेड यूनियन से की थी. 1952 में वह पहली बार इलाहाबाद के करछना विधानसभा क्षेत्र से चुने गए. 1960  में गोविन्द बल्लभ पन्त के मुख्यमंत्री रहते वे पहली बार उत्तर  प्रदेश में उपमंत्री बने. 1967  में वे उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मंत्री और 1971 में केंद्र में संचार राज्य मंत्री बनाये गए.