शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

थैंक ए मेल पर्सन डे पर खास

.... अब डाकिया नहीं लाते पैगाम



एक जमाना था जब किसी अपने का संदेश पाने को बेकरार निगाहें देहरी तक आने वाले रास्ते पर दूर तक टिकी रहती थीं। साइकिल की घंटी की आवाज कानों में पड़ते ही पैर रोके नहीं रुकते थे। खाकी वर्दी वाले डाकिए से अपनों का पैगाम पाकर मन मयूर नाच उठता था और  डाकिए को गुड़ के साथ ठंडा पानी या चाय के साथ मठरी खिलाकर उसका आभार प्रकट किया जाता था।

अब दौर बदल गया है। आज फेसबुक और  ई-मेल के जमाने में चिट्ठियों का चलन नहीं के बराबर रह गया है, लेकिन दूरदराज के गांव देहात में आज भी चिट्ठी लाने का काम डाकिया ही करता है। चिट्ठी से भी ज्यादा परदेस में नौकरी करने वाले बेटे का मनीआर्डर आए तो मां-बाप के चेहरे खिल जाते हैं। घूंघट की ओट से झांकती बहुरिया की आंखों में भी डाकिए के लिए आभार नजर आता है।

सर्दी, गर्मी, बरसात में हर तरह की दुष्वारियों के बीच साइकिल पर झोला टांगे हर रोज आने वाला डाकिया सिर्फ संदेशवाहक ही नहीं बल्कि सुख-दुख का साथी भी होता है और  शुक्रवार को डाकिए को धन्यवाद देने का दिन है।

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