मंगलवार, अगस्त 31, 2010
शनिवार, अगस्त 28, 2010
जब एमएम सहगल को चित किया सुचेता ने
इतिहास से दिलचिस्प मुकाबले
आजादी के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में नई दिल्ली संसदीय सीट पर कांग्रेस की हार हुई. पंडित नेहरु ने शायद ही कल्पना की हो कि यह महत्वपूर्ण सीट उनके हाथ से निकल जायेगी. कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका था. 1952 में नई दिल्ली क्षेत्र में मुकाबला दिलचस्प था. एक तरफ कांग्रेस थी तो दूसरी और सुचेता कृपलानी. एमएम सहगल को कांग्रेस ने चुनाव मैदान में उतारा था. उनकी दिल्ली में अच्छी पकड़ थी. सुचेता कृपलानी ' किसान मजदूर प्रजा पार्टी' (केएमपीपी) की उम्मीदवार थीं. उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया था. दिल्ली सुचेता के लिए अनजान नहीं थी. सुचेता कांग्रेस प्रत्याशी पर भारी पड़ीं. चुनाव में केएमपीपी को 47735 और कांग्रेस को 40064 मत मिले. सहगल की 7671 मतों के अंतर से पराजय हुई. हालांकि, दिल्ली की अन्य दो सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई.
शुक्रवार, अगस्त 27, 2010
यह हार थी बड़ी
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
जीत ही नहीं कई बार हार भी बड़ी होती है. 14वी लोकसभा चुनाव में शिवराज पाटिल का महाराष्ट्र की लातूर संसदीय सीट से परास्त होना एक बड़ी घटना थी. यहाँ पहली बार कमल से पंजा पराजित हुआ. यहाँ तक कि 'कमंडल की लहर' भी लातूर में बेअसर हुई थी. इस सीट से उस समय भी कांग्रेस उम्मीदवार शिवराज पाटिल की जीत हुई पर 2004 में यहाँ शिवराज को हार का सामना करना पड़ा जो इसके पहले सात बार इस क्षेत्र से ही लोकसभा में पहुँच चुके थे. 1962 से इस संसदीय क्षेत्र से 11 दफा कांग्रेस प्रत्याशी की जीत हुई है. 2004 की हार के पहले 1977 के आम चुनाव में पहली बार कांग्रेस विरोधी लहर में ही यहाँ पंजे की हार हुई थी.
लातूर कांग्रेस का गढ़ रहा है. 2004 के आम चुनाव में यहाँ कोई लहर नहीं थी. निश्चित रूप से कांग्रेस की गणना में यह उनकी सुरक्षित जीत वाली सीट रही होगी. आखिर हो भी क्यों न, यहाँ से कांग्रेस के प्रमुख सेनापति शिवराज पाटिल चुनाव लड़ रहे थे लेकिन चुनाव नतीजो से सब दंग रह गए. कांग्रेस ने लातूर सीट खोई. भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार रूप ताई पाटिल ने उन्हें 30551 मतों से पराजित किया. कांग्रेस प्रत्याशी शिवराज को 372990 और भाजपा को 403541 मत मिले.
14वीं लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. एनडीए की सरकार बनी. मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री बने. शिवराज पाटिल को भी मनमोहन के कुनबे में शामिल किया गया. जुलाई, 2004 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया. वह यूपीए सरकार में गृहमंत्री बने. मुंबई में आतंकी हमलों के बाद वे अपने परिधानों के कारण सुर्ख़ियों में आये. इस घटना में कांग्रेस की किरकिरी हुई. नतीजतन उन्हें गृहमंत्री का पद गवाना पड़ा. पाटिल के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई. 1972 में पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और कई दफा महत्वपूर्ण पद पर रहे. 1980 के दशक में उन्होंने केंद्रीय राजनीति में प्रवेश किया. पहली बार सातवीं लोकसभा में चुनाव जीते और इंदिरा गाँधी की सरकार में रक्षा राज्यमंत्री बने. जब-जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही तब-तब वे प्रमुख पदों पर रहे. 1999 के आम चुनाव के बाद उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली.
जीत ही नहीं कई बार हार भी बड़ी होती है. 14वी लोकसभा चुनाव में शिवराज पाटिल का महाराष्ट्र की लातूर संसदीय सीट से परास्त होना एक बड़ी घटना थी. यहाँ पहली बार कमल से पंजा पराजित हुआ. यहाँ तक कि 'कमंडल की लहर' भी लातूर में बेअसर हुई थी. इस सीट से उस समय भी कांग्रेस उम्मीदवार शिवराज पाटिल की जीत हुई पर 2004 में यहाँ शिवराज को हार का सामना करना पड़ा जो इसके पहले सात बार इस क्षेत्र से ही लोकसभा में पहुँच चुके थे. 1962 से इस संसदीय क्षेत्र से 11 दफा कांग्रेस प्रत्याशी की जीत हुई है. 2004 की हार के पहले 1977 के आम चुनाव में पहली बार कांग्रेस विरोधी लहर में ही यहाँ पंजे की हार हुई थी.
लातूर कांग्रेस का गढ़ रहा है. 2004 के आम चुनाव में यहाँ कोई लहर नहीं थी. निश्चित रूप से कांग्रेस की गणना में यह उनकी सुरक्षित जीत वाली सीट रही होगी. आखिर हो भी क्यों न, यहाँ से कांग्रेस के प्रमुख सेनापति शिवराज पाटिल चुनाव लड़ रहे थे लेकिन चुनाव नतीजो से सब दंग रह गए. कांग्रेस ने लातूर सीट खोई. भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार रूप ताई पाटिल ने उन्हें 30551 मतों से पराजित किया. कांग्रेस प्रत्याशी शिवराज को 372990 और भाजपा को 403541 मत मिले.
14वीं लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. एनडीए की सरकार बनी. मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री बने. शिवराज पाटिल को भी मनमोहन के कुनबे में शामिल किया गया. जुलाई, 2004 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया. वह यूपीए सरकार में गृहमंत्री बने. मुंबई में आतंकी हमलों के बाद वे अपने परिधानों के कारण सुर्ख़ियों में आये. इस घटना में कांग्रेस की किरकिरी हुई. नतीजतन उन्हें गृहमंत्री का पद गवाना पड़ा. पाटिल के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई. 1972 में पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और कई दफा महत्वपूर्ण पद पर रहे. 1980 के दशक में उन्होंने केंद्रीय राजनीति में प्रवेश किया. पहली बार सातवीं लोकसभा में चुनाव जीते और इंदिरा गाँधी की सरकार में रक्षा राज्यमंत्री बने. जब-जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही तब-तब वे प्रमुख पदों पर रहे. 1999 के आम चुनाव के बाद उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली.
मंगलवार, अगस्त 24, 2010
जब 'प्रियदर्शनी' से परास्त हुईं राजमाता
इतिहास से दिलचस्प मुकाबला
यह एक बड़ी जंग थी. मैदान था रायबरेली. पूरे देश की निगाहें इस पर टिकी थीं. लोगो की उत्सुकता नतीजे में थी. जी हाँ, यह 1980 का आम चुनाव था. जनता लहर का वेग ख़त्म हो चुका था और कांग्रेस एक बार फिर अपनी खोई हुई साख को पाने की फिराक में थी. रायबरेली में मुकाबला दो महिला दिग्गजों की आन- बान-शान का था. यह भिडंत 'प्रियदर्शनी' और 'राजमाता' विजयाराजे सिंधिया के बीच थी. एक देश की पहली महिला प्रधानमन्त्री और पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी, तो दूसरी ग्वालियर की राजमाता. इस जंग में 'प्रियदर्शनी' ने राजमाता को धूल चटा दी. लोकसभा चुनावों में दोनों की जीत-हार के अपने-अपने रिकॉर्ड हैं. इंदिरा को अपने राजनीतिक करियर में केवल एक बार ही हार का सामना करना पड़ा जबकि राजमाता संसदीय चुनाव में दो बार हारीं. नेहरु के निधन के बाद 1964 में लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में इंदिरा गाँधी पहली बार मंत्री बनीं. 1966 में उन्हें प्रधानमन्त्री होने का गौरव हासिल हुआ. राजमाता पहली बार 1957 में दूसरी लोकसभा के लिए चुनी गयीं. उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस से हुई. दो लोकसभा चुनावों में गुना और ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से वह कांग्रेस की प्रत्याशी थीं. चौथे आम चुनाव के पूर्व उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. 1967 के लोकसभा चुनाव में वह निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में विजयीं हुईं. बाद में वह जनसंघ में शामिल हो गयीं. जब जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में तब्दील हुआ, तब वह उसमे आ गयीं. मरते दम तक उन्होंने भाजपा नहीं छोड़ी. 1980 के आम चुनाव में राजमाता को अपनी जीत का पक्का यकीन था. उन्हें विश्वास था कि जनता इमरजेंसी के काले अध्याय को बिसरा नहीं पायी होगी. 1977 के चुनाव में इंदिरा गाँधी रायबरेली से चुनाव हार चुकी थीं. बावजूद इसके, वह यहाँ से फिर चुनाव लड़ रही थीं. रायबरेली कांग्रेस का गढ़ रहा है. आजादी के बाद यहाँ से लोकसभा के लिए हुए 15 चुनावों में से 13 बार कांग्रेस की विजय हुई है. दो बार ही गैर कांग्रेसी उम्मीदवार को सफलता मिली है. इंदिरा गाँधी को विश्वास था कि रायबरेली की जनता उनका साथ जरूर देगी. इस क्षेत्र से इंदिरा के पति फ़िरोज़ गाँधी पहली लोकसभा में चुनाव जीते थे. 1980 में इंदिरा गाँधी के पक्ष में दूसरी बात यह गयी की 18 माह की जनता पार्टी की सरकार से लोग उकता चुके थे. विपक्ष बिखर चुका था. जनता कांग्रेस को ही विकल्प के रूप में देख रही थी. इंदिरा गाँधी चुनाव जीतीं और फिर केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी.
रविवार, अगस्त 22, 2010
चरण पर बेअसर रही 1984 की लहर
इतिहास से दिलचस्प मुकाबला
1984 में इंदिरा जी की हत्या से कांग्रेस और राजीव गाँधी के प्रति पैदा हुई सहानुभूति के लहर बागपत में बेअसर रही. यह चौधरी चरण सिंह का गढ़ रहा जिसकी फसल उनके बेटे अजीत सिंह भी काट रहे हैं. आठवीं लोकसभा चुनाव में पूरे देश में कांग्रेस की वह लहर दिखी जो इससे पहले जनता पार्टी के छिन्न- भिन्न हो जाने पर 1980 में भी नहीं बन सकी थी. बावजूद इसके, उत्तर प्रदेश की बागपत संसदीय सीट से चरण सिंह निर्वाचित हुए. उस समय प्रदेश में रहीं 85 सीटों में से मात्र दो सीटें ही विपक्ष की झोली में गयीं थीं. शेष 83 सीटों पर कांग्रेस का कब्ज़ा था. लोकसभा की 543 सीटों में 415 कांग्रेस को मिली थीं. 1977 के बाद से यहाँ हुए लोकसभा चुनावों में अब तक केवल एक बार ही लोकदल की पराजय हुई है.
1984 में बागपत संसदीय क्षेत्र से मुकाबला कांग्रेस और लोकदल के बीच था. कांग्रेस के उम्मीदवार महेश चन्द्र थे. लोकदल से चौधरी चरण सिंह प्रत्याशी थे. बागपत की जनता ने चौधरी का साथ दिया. 85674 मत के अंतर से चरण सिंह विजयी हुए. महेश चन्द्र को 167789 और चरण को 253463 मत मिले. हालांकि, चरण सिंह यहाँ से पहली बार 1977 में चुनाव जीते थे जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री हुए और चरण सिंह उप प्रधानमंत्री. जनता सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की मदद से वे देश के पांचवे प्रधानमंत्री हुए.अपने लम्बे राजनीतिक करियर में चरण सिंह संसद में तीन बार पहुंचे, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार में वे कई बार मंत्री रहे. 1937 में ब्रितानी काल में उन्होंने पहली बार उत्तर प्रदेश के छतरौली क्षेत्र का प्रतिनिधितिव किया. आजादी के पहले और आजादी के बाद वे चार बार ( 1946, 1952, 1962 और 1967 में) इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके थे. 1951 में वे पहली बार प्रदेश के मंत्री बने. 1970 तक प्रदेश के हर मंत्रिमंडल में वे शामिल रहे. दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. अक्टूबर, 1970 में उत्तर प्रदेश में जब राष्ट्रपति शासन लागू हुआ तब वे मुख्यमंत्री थे. प्रदेश के भूमि सुधार में उनकी प्रमुख भूमिका रही.
लोकदल का गढ़ देश में ऐसे कम ही क्षेत्र होंगे जिनकी निष्ठा किसी राजनीतिक परिवार के साथ जुडी हो. उत्तर प्रदेश का बागपत उनमे एक है, जहाँ के लोगों की चरण सिंह और उनके परिवार के प्रति निष्ठा बरकरार है. यहाँ के लोग चरण सिंह को अब तक नहीं भूला पाए हैं. 1977 से यहाँ हुए नौ लोकसभा चुनावों में आठ बार बहुसंख्य मतदाताओं ने लोकदल का ही साथ दिया है. तीन बार चरण सिंह और पांच बार उनके बेटे अजीत सिंह यहाँ से चुनाव जीत चुके हैं. मात्र एक बार ही यहाँ से भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी विजयी हुआ है.
शनिवार, अगस्त 21, 2010
विदेशी बनाम स्वदेशी बहू
इतिहास से दिलचस्प मुकाबलें
स्वदेशी बनाम विदेशी. 13वीं लोकसभा चुनाव में कर्नाटक की बेल्लारी संसदीय सीट पर भाजपा का यह प्रमुख चुनावी मुद्दा था. सोनिया गाँधी इस सीट से चुनाव लड़ रही थीं. यह उनका पहला चुनाव था. इस चुनाव में भाजपा ने अपनी तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज को उतारा. वस्तुतः यह मुकाबाला सोनिया बनाम सुषमा का नहीं बल्कि कांग्रेस बनाम भाजपा का था. इसमें न केवल सोनिया के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण होना था, बल्कि सुषमा का राजनीतिक करियर भी दाव पर था. सोनिया को हराने के लिए जनता दल और लोकशक्ति भी सुषमा की मदद के लिए आगे आये. मुकाबला काटें का था. भाजपा ने अपने चुनाव में स्वदेशी बनाम विदेशी बहू का मुद्दा उठाया. अचरच की बात नहीं कि पहली बार पूरी बेल्लारी ने जाना कि इंदिरा गाँधी की बहू और राजीव गाँधी की पत्नी इटली की रहने वालीं हैं. 1952 से यहाँ दो बार ही विपक्ष का प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहा. बाकी चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई. यह क्षेत्र सही मायनों में कांग्रेस का गढ़ है. यही समीकरण सोनिया गाँधी को बेल्लारी खींच कर ले गया. सोनिया को हराने में विरोधियों ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, पर भाजपा का यह दाव काम नहीं आया और सुषमा की हार हुई. इस हार का सुषमा के राजनीतिक करियर पर भी असर पड़ा. सुषमा हारीं लेकिन 1999 में ही भारतीय जनता पार्टी और सहयोगियों दलों की केंद्र में सरकार बनी. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमन्त्री हुए. सोनिया गाँधी का परचम बेल्लारी और उप्र की अमेठी में लहराया. इस चुनाव में वे दोनों संसदीय सीट से चुनाव जीतीं भी.
शुक्रवार, अगस्त 20, 2010
'मिस्टर क्लीन' असली वारिस
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस में एक यक्ष सवाल खड़ा हो गया कि, कांग्रेस (आई) का असली वारिस कौन होगा. हाशिये पर चले गए विपक्ष में एक बार फिर बेचैनी थी. देश में आठवीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. अमेठी संसदीय सीट से राजीव गांधी और मेनका आमने-सामने थे. राजीव कांग्रेस के उम्मीदवार थे और मेनका स्वतंत्र प्रत्याशी थीं. मेनका ने अपने को गाँधी परिवार का असली वारिस बताया. फैसला अमेठी कि जनता जनार्दन को करना था.
अमेठी कि जनता उहापोह में थी. एक तरफ गाँधी परिवार का बेटा जिसके सिर से दो माह पूर्व ही माँ का साया उठ गया तो दूसरी तरफ गाँधी परिवार की बहू थी. मेनका को यह उम्मीद थी कि अमेठी की जनता संजय गाँधी के कार्यों को भुला नहीं पायी होगी. वे संजय गाँधी को कांग्रेस का असली वारिस मानती थीं और उनके नहीं रहने पर वे खुद को असली वारिस समझती थीं. यह मुकाबला बहुत दिलचस्प और रोमांचक था. पूरे देश की निगाह चुनाव के नतीजो पर टिकीं थीं. अमेठी की जनता ने राजीव गाँधी को कांग्रेस की बागडोर सँभालने का जनादेश दिया. मेनका गाँधी तीन लाख मतों से चुनाव हार गई. राजीव को 365041 और मेनका को 50163 मत मिले.
अमेठी मात्र एक संसदीय सीट का चुनाव नहीं था. इसके दूरगामी परिणाम हुए. कांग्रेस में असली-नकली की बहस ख़त्म हो गई. कांग्रेस सत्ता में लौटी. राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री हुए. कांग्रेस की जीत में सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए. मेनका ने भी कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया. उनका नया ठिकाना बना पीलीभीत संसदीय क्षेत्र. 1989 में वे पहली बार इस संसदीय सीट से चुनाव जीतीं. इस सीट से बे पांच बार चुनाव जीत चुकी हैं. गैर कांग्रेसी सरकार में वे केंद्र में छह बार मंत्री बनीं.
यह विरासत की जंग थी और सामने था 1984 का आम चुनाव. अमेठी की जनता को तय करना था कि गाँधी परिवार का असली वारिस कौन है. चुनाव के ठीक दो महीने पहले तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी थी. देश इस घटना से स्तब्ध था. चार वर्षों के अन्दर गाँधी परिवार पर यह दूसरा संकट था. 1980 में संजय गाँधी की विमान हादसे में मौत हो चुकी थी. इस संकट की घडी में पूरा देश गाँधी परिवार के साथ था. लोग इमरजेंसी के काले अध्याय को भूल चुके थे.
संजय गाँधी की मौत के बाद माँ, इंदिरा को सहारा देने के लिए कांग्रेस में 'मिस्टर क्लीन' यानी राजीव गाँधी का पदार्पण हो चुका था. इंदिरा गाँधी के बाद कांग्रेस का नेतृत्व एक युवा नेता के पास था, लेकिन इंदिरा के बिना कांग्रेस की कल्पना करना बहुत मुश्किल था. यह दौर कांग्रेस के लिए भी बहुत उथल- पुथल का था. इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस में एक यक्ष सवाल खड़ा हो गया कि, कांग्रेस (आई) का असली वारिस कौन होगा. हाशिये पर चले गए विपक्ष में एक बार फिर बेचैनी थी. देश में आठवीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. अमेठी संसदीय सीट से राजीव गांधी और मेनका आमने-सामने थे. राजीव कांग्रेस के उम्मीदवार थे और मेनका स्वतंत्र प्रत्याशी थीं. मेनका ने अपने को गाँधी परिवार का असली वारिस बताया. फैसला अमेठी कि जनता जनार्दन को करना था.
अमेठी कि जनता उहापोह में थी. एक तरफ गाँधी परिवार का बेटा जिसके सिर से दो माह पूर्व ही माँ का साया उठ गया तो दूसरी तरफ गाँधी परिवार की बहू थी. मेनका को यह उम्मीद थी कि अमेठी की जनता संजय गाँधी के कार्यों को भुला नहीं पायी होगी. वे संजय गाँधी को कांग्रेस का असली वारिस मानती थीं और उनके नहीं रहने पर वे खुद को असली वारिस समझती थीं. यह मुकाबला बहुत दिलचस्प और रोमांचक था. पूरे देश की निगाह चुनाव के नतीजो पर टिकीं थीं. अमेठी की जनता ने राजीव गाँधी को कांग्रेस की बागडोर सँभालने का जनादेश दिया. मेनका गाँधी तीन लाख मतों से चुनाव हार गई. राजीव को 365041 और मेनका को 50163 मत मिले.
अमेठी मात्र एक संसदीय सीट का चुनाव नहीं था. इसके दूरगामी परिणाम हुए. कांग्रेस में असली-नकली की बहस ख़त्म हो गई. कांग्रेस सत्ता में लौटी. राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री हुए. कांग्रेस की जीत में सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए. मेनका ने भी कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया. उनका नया ठिकाना बना पीलीभीत संसदीय क्षेत्र. 1989 में वे पहली बार इस संसदीय सीट से चुनाव जीतीं. इस सीट से बे पांच बार चुनाव जीत चुकी हैं. गैर कांग्रेसी सरकार में वे केंद्र में छह बार मंत्री बनीं.
सोमवार, अगस्त 16, 2010
कुछ खास
तीसरे पायदान पर पहुंचे मनमोहन
पन्द्रह अगस्त को लगातार सातवीं बार लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराकर मनमोहन सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को पीछे छोड़ दिया है। फिलहाल वाजपेयी अब उनके प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं है, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी ने रानजीतिक जीवन से संन्यास ले लिया है। तिरंगा फहराने वाले प्रधानमन्त्री की कतार में तीसरे स्थान पर आ गए हैं।
.........और वंचित रहे वाजपेयी
वाजपेयी ने लगातार छह बार यह गौरव हासिल किया। राजग सरकार का नेतृत्व कर चुके वाजपेयी 19 मार्च, 1998 से 22 मई 2004 के बीच प्रधानमन्त्री रहे। उन्होंने कुल छह बार लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराया। इससे पहले वह 16 मई 1996 को भी प्रधानमन्त्री बने, लेकिन 1 जून 1996 को उन्हें पद से हटना पड़ा था। इससे वह एक मौका तिरंगा फहराने से वंचित रह गए।
नेहरू और इन्दिरा ने रचा इतिहास
देश में बीते छह दशक से जारी जश्न-ए-आजादी के सिलसिले में लालकिले की प्राचीर से सबसे ज्यादा 17 बार तिरंगा फहराने का मौका पण्डित नेहरू को मिला। 15 अगस्त 1947 को लालकिले पर उन्होंने पहली बार झण्डा फहराया। नेहरू 27 मई 1964 तक पीएम के पद पर रहे। इस अवधि में उन्होंने लगातार 17 बार तिरंगा लहराया। नेहरू की बेटी इन्दिरा उनसे एक कदम पीछे रहीं। उन्होंने 16 बार लालकिले पर तिरंगा फहराया। बतौर पीएम अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने 11 बार और दूसरे कार्यकाल में 5 बार तिरंगा फहरया।
जिन्हें नहीं मिला मौका
गुलजारी लाल नन्दा और चन्द्रशेखर ऐसे नेता रहे, जो पीएम तो बने, लेकिन उन्हें लालकिले पर तिरंगा फहराने का मौका नहीं मिला। नेहरू के निधन के बाद 27 मई 1964 को नन्दा प्रधानमन्त्री बने, लेकिन उस साल 15 अगस्त आने से पहले ही 9 जून 1964 को वह पद से हट गए और उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री पीएम बने। लाल बहादुर के निधन के बाद हालांकि उनको पीएम बनने का दूसरी बार भी मौका मिला, 24 जनवरी 1966 को नेहरू की पुत्री इन्दिरा ने सत्ता की बागडोर सम्भाल ली और वह तिरंगा फहराने से वंचित रहे। चन्द्रशेखर के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। 10 नवंबर 1990 को वह प्रधानमन्त्री बने लेकिन 1991 के स्वतन्त्रता दिवस से पहले ही उस साल 21 जून को पद से हट गए।
पन्द्रह अगस्त को लगातार सातवीं बार लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराकर मनमोहन सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को पीछे छोड़ दिया है। फिलहाल वाजपेयी अब उनके प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं है, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी ने रानजीतिक जीवन से संन्यास ले लिया है। तिरंगा फहराने वाले प्रधानमन्त्री की कतार में तीसरे स्थान पर आ गए हैं।
.........और वंचित रहे वाजपेयी
वाजपेयी ने लगातार छह बार यह गौरव हासिल किया। राजग सरकार का नेतृत्व कर चुके वाजपेयी 19 मार्च, 1998 से 22 मई 2004 के बीच प्रधानमन्त्री रहे। उन्होंने कुल छह बार लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराया। इससे पहले वह 16 मई 1996 को भी प्रधानमन्त्री बने, लेकिन 1 जून 1996 को उन्हें पद से हटना पड़ा था। इससे वह एक मौका तिरंगा फहराने से वंचित रह गए।
नेहरू और इन्दिरा ने रचा इतिहास
देश में बीते छह दशक से जारी जश्न-ए-आजादी के सिलसिले में लालकिले की प्राचीर से सबसे ज्यादा 17 बार तिरंगा फहराने का मौका पण्डित नेहरू को मिला। 15 अगस्त 1947 को लालकिले पर उन्होंने पहली बार झण्डा फहराया। नेहरू 27 मई 1964 तक पीएम के पद पर रहे। इस अवधि में उन्होंने लगातार 17 बार तिरंगा लहराया। नेहरू की बेटी इन्दिरा उनसे एक कदम पीछे रहीं। उन्होंने 16 बार लालकिले पर तिरंगा फहराया। बतौर पीएम अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने 11 बार और दूसरे कार्यकाल में 5 बार तिरंगा फहरया।
जिन्हें नहीं मिला मौका
गुलजारी लाल नन्दा और चन्द्रशेखर ऐसे नेता रहे, जो पीएम तो बने, लेकिन उन्हें लालकिले पर तिरंगा फहराने का मौका नहीं मिला। नेहरू के निधन के बाद 27 मई 1964 को नन्दा प्रधानमन्त्री बने, लेकिन उस साल 15 अगस्त आने से पहले ही 9 जून 1964 को वह पद से हट गए और उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री पीएम बने। लाल बहादुर के निधन के बाद हालांकि उनको पीएम बनने का दूसरी बार भी मौका मिला, 24 जनवरी 1966 को नेहरू की पुत्री इन्दिरा ने सत्ता की बागडोर सम्भाल ली और वह तिरंगा फहराने से वंचित रहे। चन्द्रशेखर के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। 10 नवंबर 1990 को वह प्रधानमन्त्री बने लेकिन 1991 के स्वतन्त्रता दिवस से पहले ही उस साल 21 जून को पद से हट गए।
बुधवार, अगस्त 11, 2010
कमंडल में फंसी मेनका
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले...
पीलीभीत संसदीय सीट से पांच बार चुनाव जीत चुकी मेनका गाँधी को यहाँ 1991 में हार का भी सामना करना पड़ा था. यह वह दौर था जब मंडल की लौ मंद होने लगी थी और कमंडल का जादू जनता के सिर चढ़ कर बोल रहा था. दसवीं लोकसभा के चुनाव यानी साल 1991 में पीलीभीत संसदीय सीट से भाजपा के परशुराम ने मेनका गाँधी को शिकस्त दी. मेनका गाँधी जनता पार्टी (नेशनल) की प्रत्याशी थीं. इस चुनाव में वे कमंडल के भवर जाल में फस गयीं. इस जंग में मेनका को मात मिली. 1984 की हार के बाद मेनका गाँधी की यह दूसरी पराजय थी.
1984 में मेनका गाँधी ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत अमेठी की हार के साथ की थी. इस चुनाव के बाद ही पीलीभीत संसदीय सीट को उन्होंने अपनी राजनीतिक कर्मस्थली बनायीं. नौवें लोकसभा चुनाव में जनता दल (कांग्रेस विरोधी दल) में शामिल हुईं और पीलीभीत सीट से वे पहली बार निर्वाचित हुईं. यह जीत मेनका गाँधी के प्रति लोगों की सहानुभूति और मंडल की मिश्रित विजय थी. हालांकि, दसवीं लोकसभा चुनाव में पीलीभीत से मेनका गाँधी की पराजय हुई. इस चुनाव में मेनका के पक्ष में 139710 मत और परशुराम को 146633 मत मिले. मेनका को 6923 मतों से हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद पीलीभीत की जनता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. मेनका गाँधी इस सीट से पांच बार चुनी गयीं. दो बार जनता दल और दो बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में सफलता मिली. चौदहवीं लोकसभा के लिए वे पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार के रूप में जीतीं. पंद्रहवीं लोकसभा के लिए मेनका यह सीट अपने बेटे वरुण गाँधी के सुपुर्द कर खुद आवंला क्षेत्र से भाग्य आजमा रही हैं.
पीलीभीत संसदीय सीट से पांच बार चुनाव जीत चुकी मेनका गाँधी को यहाँ 1991 में हार का भी सामना करना पड़ा था. यह वह दौर था जब मंडल की लौ मंद होने लगी थी और कमंडल का जादू जनता के सिर चढ़ कर बोल रहा था. दसवीं लोकसभा के चुनाव यानी साल 1991 में पीलीभीत संसदीय सीट से भाजपा के परशुराम ने मेनका गाँधी को शिकस्त दी. मेनका गाँधी जनता पार्टी (नेशनल) की प्रत्याशी थीं. इस चुनाव में वे कमंडल के भवर जाल में फस गयीं. इस जंग में मेनका को मात मिली. 1984 की हार के बाद मेनका गाँधी की यह दूसरी पराजय थी.
1984 में मेनका गाँधी ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत अमेठी की हार के साथ की थी. इस चुनाव के बाद ही पीलीभीत संसदीय सीट को उन्होंने अपनी राजनीतिक कर्मस्थली बनायीं. नौवें लोकसभा चुनाव में जनता दल (कांग्रेस विरोधी दल) में शामिल हुईं और पीलीभीत सीट से वे पहली बार निर्वाचित हुईं. यह जीत मेनका गाँधी के प्रति लोगों की सहानुभूति और मंडल की मिश्रित विजय थी. हालांकि, दसवीं लोकसभा चुनाव में पीलीभीत से मेनका गाँधी की पराजय हुई. इस चुनाव में मेनका के पक्ष में 139710 मत और परशुराम को 146633 मत मिले. मेनका को 6923 मतों से हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद पीलीभीत की जनता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. मेनका गाँधी इस सीट से पांच बार चुनी गयीं. दो बार जनता दल और दो बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में सफलता मिली. चौदहवीं लोकसभा के लिए वे पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार के रूप में जीतीं. पंद्रहवीं लोकसभा के लिए मेनका यह सीट अपने बेटे वरुण गाँधी के सुपुर्द कर खुद आवंला क्षेत्र से भाग्य आजमा रही हैं.
मंगलवार, अगस्त 10, 2010
...जब रूठ गयी अमेठी
इतिहास से/ दिलचस्प मुकाबले...
अमेठी की जनता नेहरु/ गाँधी परिवार को सिर-आँखों पर बिठाती रही है, लेकिन यह मुहब्बत एक बार गड़बड़ा गयी. साल था 1977. जनता नाराज थी और नेहरु परिवार इस बात से बेखबर कि अगले 25 महीनों तक उसे बनवास झेलना पड़ेगा. 18 महीने की इमरजेंसी और 28 महीने का बनवास. 1977 के आम चुनावों में इस सीट से 'युवा ह्रदय सम्राट' संजय गाँधी को पराजय का सामना करना पड़ा. यह चुनाव एतिहासिक था. अमेठी सीट पर पूरे विपक्ष की निगाह थी. यहाँ से संजय गाँधी चुनाव लड़ रहे थे. उनके प्रतिद्वंदी जनता पार्टी के रविन्द्र प्रताप थे. संजय गाँधी की 76 हजार से अधिक मतों से हार हुई.
रविन्द्र प्रताप को 176410 और संजय गाँधी को 100566 मत मिले. जनता पार्टी के उम्मीदवार को 60 .47 फीसद और संजय गाँधी को 34.47 फीसद मत मिले. 1980 के लोकसभा चुनाव में संजय गाँधी अमेठी संसदीय सीट से लोकसभा के लिए चुने गए. केवल दो चुनावों में यहाँ कांग्रेस के प्रत्याशी की पराजय हुई. 1977 में जनता पार्टी के उम्मीदवार ने संजय गाँधी को परास्त किया. 1998 में भारतीय जनता पार्टी के संजय सिंह ने कांग्रेस को शिकस्त दी. इन दो मौकों को छोड़कर इस संसदीय सीट पर कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा है. 1977 में कांग्रेस की पराजय का प्रमुख कारण 1975 में देश में आपातकाल लागू था. अमेठी की जनता संजय गाँधी को इमरजेंसी का प्रमुख गुनाहगार मानती थी. 1998 के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की हार का मुख्य कारण देश की राजनीति में गाँधी परिवार की निष्क्रियता थी. दरअसल, राजीव गाँधी की हत्या के बाद सोनिया ने राजनीति को अलविदा कह दिया था. इस राजनीतिक निष्क्रियता ने अमेठी की जनता का कांग्रेस से मोहभंग किया. 1999 में सोनिया गाँधी ने भी उस निष्ठा का सम्मान किया और आम चुनाव में अमेठी से लड़ी. अमेठी की जनता ने एक बार फिर गाँधी परिवार में आस्था जताते हुए सोनिया को भरी मतों से विजयी बनाया. इस चुनाव में विपक्षियों की जमानत जप्त हो गयी.
अमेठी से पुराना नाता
बहुत कम लोग जानते होंगे कि नेहरु और गाँधी परिवार के प्रति निष्ठा की जडें काफी पुरानी हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरु के पिता और इंदिरा गाँधी के दादा मोती लाल नेहरु ने अपने वकालत की शुरुआत अमेठी से ही की थी. बाद में वे इलाहाबाद आ गए. यही कारण है कि चुनावी धरातल की तलाश में गाँधी परिवार ने अमेठी को ही प्रमुखता दी. इस परिवार के चार सदस्य यहाँ से चुनाव लड़े और विजयी भी हुए. संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी अमेठी लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.
अमेठी की जनता नेहरु/ गाँधी परिवार को सिर-आँखों पर बिठाती रही है, लेकिन यह मुहब्बत एक बार गड़बड़ा गयी. साल था 1977. जनता नाराज थी और नेहरु परिवार इस बात से बेखबर कि अगले 25 महीनों तक उसे बनवास झेलना पड़ेगा. 18 महीने की इमरजेंसी और 28 महीने का बनवास. 1977 के आम चुनावों में इस सीट से 'युवा ह्रदय सम्राट' संजय गाँधी को पराजय का सामना करना पड़ा. यह चुनाव एतिहासिक था. अमेठी सीट पर पूरे विपक्ष की निगाह थी. यहाँ से संजय गाँधी चुनाव लड़ रहे थे. उनके प्रतिद्वंदी जनता पार्टी के रविन्द्र प्रताप थे. संजय गाँधी की 76 हजार से अधिक मतों से हार हुई.
रविन्द्र प्रताप को 176410 और संजय गाँधी को 100566 मत मिले. जनता पार्टी के उम्मीदवार को 60 .47 फीसद और संजय गाँधी को 34.47 फीसद मत मिले. 1980 के लोकसभा चुनाव में संजय गाँधी अमेठी संसदीय सीट से लोकसभा के लिए चुने गए. केवल दो चुनावों में यहाँ कांग्रेस के प्रत्याशी की पराजय हुई. 1977 में जनता पार्टी के उम्मीदवार ने संजय गाँधी को परास्त किया. 1998 में भारतीय जनता पार्टी के संजय सिंह ने कांग्रेस को शिकस्त दी. इन दो मौकों को छोड़कर इस संसदीय सीट पर कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा है. 1977 में कांग्रेस की पराजय का प्रमुख कारण 1975 में देश में आपातकाल लागू था. अमेठी की जनता संजय गाँधी को इमरजेंसी का प्रमुख गुनाहगार मानती थी. 1998 के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की हार का मुख्य कारण देश की राजनीति में गाँधी परिवार की निष्क्रियता थी. दरअसल, राजीव गाँधी की हत्या के बाद सोनिया ने राजनीति को अलविदा कह दिया था. इस राजनीतिक निष्क्रियता ने अमेठी की जनता का कांग्रेस से मोहभंग किया. 1999 में सोनिया गाँधी ने भी उस निष्ठा का सम्मान किया और आम चुनाव में अमेठी से लड़ी. अमेठी की जनता ने एक बार फिर गाँधी परिवार में आस्था जताते हुए सोनिया को भरी मतों से विजयी बनाया. इस चुनाव में विपक्षियों की जमानत जप्त हो गयी.
अमेठी से पुराना नाता
बहुत कम लोग जानते होंगे कि नेहरु और गाँधी परिवार के प्रति निष्ठा की जडें काफी पुरानी हैं. पंडित जवाहरलाल नेहरु के पिता और इंदिरा गाँधी के दादा मोती लाल नेहरु ने अपने वकालत की शुरुआत अमेठी से ही की थी. बाद में वे इलाहाबाद आ गए. यही कारण है कि चुनावी धरातल की तलाश में गाँधी परिवार ने अमेठी को ही प्रमुखता दी. इस परिवार के चार सदस्य यहाँ से चुनाव लड़े और विजयी भी हुए. संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी अमेठी लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.
शनिवार, अगस्त 07, 2010
...न भूलने वाली हार
इतिहास से/ दिलचस्प मुकाबले
तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार. यह बसपा का बेहद आक्रामक नारा था. इस नारे के बूते ही 1980 के दशक में वह दलितों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना जगाने में कामयाब हुई. वह यह साबित करने में कामयाब हुई कि दलित उद्धार उसकी ही नर्सरी में संभव है. बसपा के संस्थापक कांशीराम का राजनीतिक करियर भले ही बहुत लम्बा नहीं रहा लेकिन जिस बसपा की बुनियाद उन्होंने रखी, वह आज फूल- फल रही है. वह देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों में शुमार है. बसपा प्रमुख कांशीराम भले ही दो बार लोकसभा के लिए चुने गए, लेकिन 11वें लोकसभा चुनाव में उप्र की फूलपुर संसदीय सीट से उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा. 1996 की चुनावी जंग में फूलपुर से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जंग बहादुर सिंह पटेल ने उनको 16021 मतों से परास्त किया. कांशीराम को 146823 मत और जंग बहादुर को 162844 मत मिले. हालांकि, इस लोकसभा चुनाव में कांशीराम पंजाब की होशियारपुर संसदीय सीट से विजयी हुए और सदन तक पहुँचने में कामयाब भी रहे, लेकिन कांशीराम फूलपुर की हार को वह कभी नहीं भूल सके.
दरअसल, कांशीराम जिस जातीय समीकरण से फूलपुर चुनाव लड़ने गए, उस पर वहां की जनता ने पानी फेर दिया. फूलपुर संसदीय सीट में करीब 70 फीसद आबादी पिछड़े और अल्पसंख्यको की है. उन्हें यह उम्मीद थी कि इसका लाभ उन्हें इस चुनाव में मिलेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कांशीराम का आकलन फेल हो गया. दरअसल, आजादी के बाद से यह कांग्रेस की परंपरागत सीट थी. मंडल राजनीति के बाद यहाँ मत जातीय आधार पर बट गए. यही वजह है कि 1980 के बाद यहाँ कभी कांग्रेस उम्मीदवार को सफलता नहीं मिल सकी. तीन लोकसभा चुनावों में बसपा उम्मीदवार चुनाव निकालने में भले ही कामयाब नहीं हो सका हो, पर वह दूसरे स्थान पर रहा.
तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार. यह बसपा का बेहद आक्रामक नारा था. इस नारे के बूते ही 1980 के दशक में वह दलितों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना जगाने में कामयाब हुई. वह यह साबित करने में कामयाब हुई कि दलित उद्धार उसकी ही नर्सरी में संभव है. बसपा के संस्थापक कांशीराम का राजनीतिक करियर भले ही बहुत लम्बा नहीं रहा लेकिन जिस बसपा की बुनियाद उन्होंने रखी, वह आज फूल- फल रही है. वह देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों में शुमार है. बसपा प्रमुख कांशीराम भले ही दो बार लोकसभा के लिए चुने गए, लेकिन 11वें लोकसभा चुनाव में उप्र की फूलपुर संसदीय सीट से उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा. 1996 की चुनावी जंग में फूलपुर से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जंग बहादुर सिंह पटेल ने उनको 16021 मतों से परास्त किया. कांशीराम को 146823 मत और जंग बहादुर को 162844 मत मिले. हालांकि, इस लोकसभा चुनाव में कांशीराम पंजाब की होशियारपुर संसदीय सीट से विजयी हुए और सदन तक पहुँचने में कामयाब भी रहे, लेकिन कांशीराम फूलपुर की हार को वह कभी नहीं भूल सके.
दरअसल, कांशीराम जिस जातीय समीकरण से फूलपुर चुनाव लड़ने गए, उस पर वहां की जनता ने पानी फेर दिया. फूलपुर संसदीय सीट में करीब 70 फीसद आबादी पिछड़े और अल्पसंख्यको की है. उन्हें यह उम्मीद थी कि इसका लाभ उन्हें इस चुनाव में मिलेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कांशीराम का आकलन फेल हो गया. दरअसल, आजादी के बाद से यह कांग्रेस की परंपरागत सीट थी. मंडल राजनीति के बाद यहाँ मत जातीय आधार पर बट गए. यही वजह है कि 1980 के बाद यहाँ कभी कांग्रेस उम्मीदवार को सफलता नहीं मिल सकी. तीन लोकसभा चुनावों में बसपा उम्मीदवार चुनाव निकालने में भले ही कामयाब नहीं हो सका हो, पर वह दूसरे स्थान पर रहा.
शुक्रवार, अगस्त 06, 2010
गढ़ में हारे सोमदा
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
यह चुनाव है भैया, कुछ भी हो सकता है. जादवपुर से अब तक आठ बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके सोमनाथ चटर्जी को भी 1984 में अपने ही गढ़ में हार का स्वाद चखना पड़ा. सोमदा आठवीं लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की जादवपुर संसदीय सीट से तब कांग्रेस की 'फायर ब्रांड' और अधिक युवा प्रत्याशी ममता बनर्जी से चुनाव हारे. ममता का यह पहला चुनाव था. उस समय वह राजनीति में अपनी जमीन तलाश रही थीं, जबकि सोमदा राजनीति के मंझे खिलाडी थे. सोमदा के लिए भी यह कभी न भूल पाने वाली हार थी, तो ममता के लिए एतिहासिक जीत.
परिणाम से पहले तक इस संसदीय सीट पर किसी की नजर नहीं थी. सोमदा का ऐसा कद था कि उनकी हार के बारे में लोगों ने सोचा तक नहीं था. यह मुकाबला दो दिग्गजों के बीच नहीं था. इसीलिए लोगों की निगाह भी इस ओर नहीं गयी. तब तक किसी को यह आभास नहीं था कि राजनीति का ककहरा सीख रहीं ममता राजनीति के दिग्गज सोमदा पर भारी पड़ेंगी. राजनीतिक पंडितो की गढ़नायें धरी की धरी रह गयीं. इस चुनाव में सोमनाथ पराजित हुए. ममता रातों रात एक बड़ी नेता हो गयीं. एक जीत ने उनके कद को बड़ा कर दिया.
1970 के दशक में ममता ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस से की. अमेरिका से डॉक्टरेट की डिग्री लेने के बाद वह पश्चिम बंगाल की राजनीति में सक्रिय हो गयीं. प्रखर व्यक्तिव की धनी ममता ने बहुत जल्द राजनीति में अपना एक स्थान बना लिया. 1997 में ममता का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होंने इस पार्टी से किनारा कर लिया. उन्होंने अपनी त्रिदमूल कांग्रेस पार्टी बनाई. अपने करीब तीन दशक के राजनीतिक करियर में वह छह बार लोकसभा पहुँचीं. 1989 में वे पहली बार कांग्रेस विरोधी लहर में पश्चिम बंगाल के जादवपुर सीट से चुनाव हारीं. इस हार के बाद उन्होंने दक्षिण कोलकाता संसदीय सीट से चुनाव लड़ा. वे यहाँ से पांच बार विजयी हुईं. ममता पहली बार 1991 में प्रीवी नरसिंहराव सरकार में केंद्रीय संसाधन मंत्री बनीं. 1999 में एनडीए के साथ जुड़ीं और इस सरकार में रेलमंत्री बनीं. सिंगूर, नंदीग्राम में किसानों की हक़ की लड़ाई में वे काफी समय तक सुर्ख़ियों में रहीं.
यह चुनाव है भैया, कुछ भी हो सकता है. जादवपुर से अब तक आठ बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके सोमनाथ चटर्जी को भी 1984 में अपने ही गढ़ में हार का स्वाद चखना पड़ा. सोमदा आठवीं लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की जादवपुर संसदीय सीट से तब कांग्रेस की 'फायर ब्रांड' और अधिक युवा प्रत्याशी ममता बनर्जी से चुनाव हारे. ममता का यह पहला चुनाव था. उस समय वह राजनीति में अपनी जमीन तलाश रही थीं, जबकि सोमदा राजनीति के मंझे खिलाडी थे. सोमदा के लिए भी यह कभी न भूल पाने वाली हार थी, तो ममता के लिए एतिहासिक जीत.
परिणाम से पहले तक इस संसदीय सीट पर किसी की नजर नहीं थी. सोमदा का ऐसा कद था कि उनकी हार के बारे में लोगों ने सोचा तक नहीं था. यह मुकाबला दो दिग्गजों के बीच नहीं था. इसीलिए लोगों की निगाह भी इस ओर नहीं गयी. तब तक किसी को यह आभास नहीं था कि राजनीति का ककहरा सीख रहीं ममता राजनीति के दिग्गज सोमदा पर भारी पड़ेंगी. राजनीतिक पंडितो की गढ़नायें धरी की धरी रह गयीं. इस चुनाव में सोमनाथ पराजित हुए. ममता रातों रात एक बड़ी नेता हो गयीं. एक जीत ने उनके कद को बड़ा कर दिया.
1970 के दशक में ममता ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस से की. अमेरिका से डॉक्टरेट की डिग्री लेने के बाद वह पश्चिम बंगाल की राजनीति में सक्रिय हो गयीं. प्रखर व्यक्तिव की धनी ममता ने बहुत जल्द राजनीति में अपना एक स्थान बना लिया. 1997 में ममता का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होंने इस पार्टी से किनारा कर लिया. उन्होंने अपनी त्रिदमूल कांग्रेस पार्टी बनाई. अपने करीब तीन दशक के राजनीतिक करियर में वह छह बार लोकसभा पहुँचीं. 1989 में वे पहली बार कांग्रेस विरोधी लहर में पश्चिम बंगाल के जादवपुर सीट से चुनाव हारीं. इस हार के बाद उन्होंने दक्षिण कोलकाता संसदीय सीट से चुनाव लड़ा. वे यहाँ से पांच बार विजयी हुईं. ममता पहली बार 1991 में प्रीवी नरसिंहराव सरकार में केंद्रीय संसाधन मंत्री बनीं. 1999 में एनडीए के साथ जुड़ीं और इस सरकार में रेलमंत्री बनीं. सिंगूर, नंदीग्राम में किसानों की हक़ की लड़ाई में वे काफी समय तक सुर्ख़ियों में रहीं.
गुरुवार, अगस्त 05, 2010
ख़त्म हुआ इंदिरा का वनवास
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर! 1978 में कांग्रेस का यह चुनावी नारा पूरे देश की जुबान पर था. दरअसल, कर्नाटक की चिकमंगलूर संसदीय सीट पर उपचुनाव हो रहा था और इंदिरा जी इस सीट से चुनाव लड़ रही थीं. कुप्पा में हुई वरिष्ट कांग्रेसी नेताओं की बैठक के बाद कार्यकर्ताओं के आग्रह पर ही इस सीट से इंदिरा ने चुनाव लड़ने की हामी भरी. 1977 के आम चुनाव में विरोधियो से पस्त हुई इंदिरा गाँधी और कांग्रेस के पास राजनीति की मुख्यधारा में लौटने का यह सुनहरा मौका था. इस उपचुनाव में चिकमंगलूर देश की राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु बन गया. पूरे देश की निगाहें इस सीट के नतीजे पर टिक गयी. इंदिरा को परास्त करने के लिए एक बार फिर देश में कांग्रेस विरोधी खेमा एकजुट हुआ. कांग्रेस ने भी इस सीट को जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. इंदिराजी जीतीं और विपक्ष की पराजय हुई. इंदिरा ने अपने प्रतिद्वंदी को 77,333 मतों से पराजित किया. इस चुनाव में इंदिरा को 2,49,376 मत और उनके प्रतिद्वंदी के प्रत्याशी वीरेंदर पाटिल को 1,72,043 मत मिले. इंदिराजी की जीत से कांग्रेस में जान आ गयी और एक बार फिर जोश से भर गयी. चिकमंगलूर की जीत कांग्रेस के लिए मील का पत्थर साबित हुई. इसने 1980 के आम चुनावों में कांग्रेस की कामयाबी का ट्रेलर दिखा दिया. इस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर भारी बहुमत से सत्ता में लौटी.
एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमंगलूर, चिकमंगलूर! 1978 में कांग्रेस का यह चुनावी नारा पूरे देश की जुबान पर था. दरअसल, कर्नाटक की चिकमंगलूर संसदीय सीट पर उपचुनाव हो रहा था और इंदिरा जी इस सीट से चुनाव लड़ रही थीं. कुप्पा में हुई वरिष्ट कांग्रेसी नेताओं की बैठक के बाद कार्यकर्ताओं के आग्रह पर ही इस सीट से इंदिरा ने चुनाव लड़ने की हामी भरी. 1977 के आम चुनाव में विरोधियो से पस्त हुई इंदिरा गाँधी और कांग्रेस के पास राजनीति की मुख्यधारा में लौटने का यह सुनहरा मौका था. इस उपचुनाव में चिकमंगलूर देश की राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु बन गया. पूरे देश की निगाहें इस सीट के नतीजे पर टिक गयी. इंदिरा को परास्त करने के लिए एक बार फिर देश में कांग्रेस विरोधी खेमा एकजुट हुआ. कांग्रेस ने भी इस सीट को जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. इंदिराजी जीतीं और विपक्ष की पराजय हुई. इंदिरा ने अपने प्रतिद्वंदी को 77,333 मतों से पराजित किया. इस चुनाव में इंदिरा को 2,49,376 मत और उनके प्रतिद्वंदी के प्रत्याशी वीरेंदर पाटिल को 1,72,043 मत मिले. इंदिराजी की जीत से कांग्रेस में जान आ गयी और एक बार फिर जोश से भर गयी. चिकमंगलूर की जीत कांग्रेस के लिए मील का पत्थर साबित हुई. इसने 1980 के आम चुनावों में कांग्रेस की कामयाबी का ट्रेलर दिखा दिया. इस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर भारी बहुमत से सत्ता में लौटी.
बुधवार, अगस्त 04, 2010
...जब इंदिरा गाँधी हारीं
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
भारतीय राजनीति के पन्ने पलटें तो एक रोचक अध्याय प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी और राज नारायण के चुनावी मुकाबले का भी है. इसकी परिणति इंदिरा गाँधी के इमरजेंसी यानी आपातकाल लगाने में हुई. राज नारायण रायबरेली से चुनाव लड़ते थे और हारते रहते थे. 1971 में वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े और हारे. हार के चार साल बाद राज नारायण ने चुनाव परिणाम के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की. 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सबूतों को प्रयाप्त मानते हुए एतिहासिक फैसले में इंदिरा गाँधी को लोकसभा छोड़ने का आदेश दिया और 6 सालों के लिए उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इंदिरा ने इस्तीफा देने से मना कर दिया. जय प्रकाश नारायण ने आन्दोलन का आह्वान किया. उस समय फखरुद्दीन अली अहमद भारत के राष्ट्रपति थे. मंत्रिमंडल ने आपातकालीन की सिफारिश की और 26 जून 1975 सविंधान की धारा 352 का हवाला देते हुए आपातकाल की घोषणा की गयी. जनवरी 1977 में इंदिरा गाँधी ने आपातकाल समाप्त कर लोकसभा चुनाव की घोषणा की. जनता ने कांग्रेस को करारा जवाब दिया. राज नारायण इंदिरा गाँधी को हराने वाले एकमात्र नेता बने. 1977 में इंदिरा गांधी की हार भारतीय चुनाव में एतिहासिक थी. जनता पार्टी की सरकार सत्ता में तो आ गयी, लेकिन प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई और गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह में टकराव शुरू हो गया. चरण सिंह और राज नारायण जैसे नेता भी प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई से अलग हो गए. कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह की सरकार गिर गयी. इंदिरा गांधी के नेतृतव में 1980 में कांग्रेस बहुमत से चुनाव जीती.
भारतीय राजनीति के पन्ने पलटें तो एक रोचक अध्याय प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी और राज नारायण के चुनावी मुकाबले का भी है. इसकी परिणति इंदिरा गाँधी के इमरजेंसी यानी आपातकाल लगाने में हुई. राज नारायण रायबरेली से चुनाव लड़ते थे और हारते रहते थे. 1971 में वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े और हारे. हार के चार साल बाद राज नारायण ने चुनाव परिणाम के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की. 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सबूतों को प्रयाप्त मानते हुए एतिहासिक फैसले में इंदिरा गाँधी को लोकसभा छोड़ने का आदेश दिया और 6 सालों के लिए उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इंदिरा ने इस्तीफा देने से मना कर दिया. जय प्रकाश नारायण ने आन्दोलन का आह्वान किया. उस समय फखरुद्दीन अली अहमद भारत के राष्ट्रपति थे. मंत्रिमंडल ने आपातकालीन की सिफारिश की और 26 जून 1975 सविंधान की धारा 352 का हवाला देते हुए आपातकाल की घोषणा की गयी. जनवरी 1977 में इंदिरा गाँधी ने आपातकाल समाप्त कर लोकसभा चुनाव की घोषणा की. जनता ने कांग्रेस को करारा जवाब दिया. राज नारायण इंदिरा गाँधी को हराने वाले एकमात्र नेता बने. 1977 में इंदिरा गांधी की हार भारतीय चुनाव में एतिहासिक थी. जनता पार्टी की सरकार सत्ता में तो आ गयी, लेकिन प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई और गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह में टकराव शुरू हो गया. चरण सिंह और राज नारायण जैसे नेता भी प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई से अलग हो गए. कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह की सरकार गिर गयी. इंदिरा गांधी के नेतृतव में 1980 में कांग्रेस बहुमत से चुनाव जीती.
मंगलवार, अगस्त 03, 2010
...हारकर भी जीते लोहिया
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
तीसरे लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद में पंडित नेहरु से एक पत्रकार ने सवाल पूछा कि आप अपना वोट किसको देंगे? नेहरु का जवाब था, राम मनोहर लोहिया को. यह लोहिया का समाजवादी चेहरा और ईमानदार व्यक्तिव था, जो विरोधियो को भी बहुत भाता था. इस चुनाव में फूलपुर संसदीय शेत्र से नेहरु और लोहिया आमने- सामने थे. नेहरु कांग्रेस के उम्मीदवार थे और लोहिया प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के. इस चुनाव के परिणाम बहुत चौकाने वाले नहीं थे. लोहिया चुनाव हार गए. इस सीट से नेहरु की तीसरी जीत थी. यह नेहरु का विशाल व्यक्तिव था, जो लोहिया पर भारी पडा. नेहरु तीसरी बार देश के प्रधानमन्त्री बने, लेकिन एक बात तय है की लोहिया ने इस छेत्र पर अपनी जो छाप छोड़ी, उसके दूरगामी परिणाम रहे. लोहिया की उत्कंठा लोकसभा में जाने की थी. उनका मानना था कि संसद पब्लिक विचारों का आइना है. लोहिया जो ठान लेते थे, उसे पूरा करके ही दम लेते थे. इस मामले में भी यही हुआ. 1963 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद संसदीय सीट पर उपचुनाव हुए और लोहिया चुनाव जीतकर संसद पहुचे.
लोहिया सही अर्थो में समाजवादी नेता थे. वे उन समाजवादी नेताओ में थे जिन्होंने समाजवाद को जिया. उनके निधन के समय उनके बैंक अकाउंट में एक भी पैसा नहीं था. तीसरी लोकसभा में प्रधानमन्त्री के ऊपर किये जाने वाले खर्च को लेकर जो उन्होंने सवाल उठाये, उसका जवाब शायद कांग्रेस के पास नहीं था. उन्होंने प्रधानमन्त्री की सुरक्षा पर होने वाले खर्च पर सवाल उठाया. लोकसभा में दिए गए अपने एतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा था की देश की 27 करोड़ आबादी की एक दिन की कमाई केवल 21 पैसे है, जबकि इस देश के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा पर रोज पांच हजार रुपये खर्च होते हैं. आज भले ही लोहिया का यह सवाल लोकसभा का सामान्य सा प्रशन लगे, लेकिन लोहिया ने यह सवाल उस दौर में पूछने का साहस किया था, जब लोकसभा कांग्रेस्मई थी. सदन में विपक्ष के नाम पर कुछ भी नहीं था और नेहरु के आगे बड़े-बड़ो की आवाज़ नहीं निकलती थी.
तीसरे लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद में पंडित नेहरु से एक पत्रकार ने सवाल पूछा कि आप अपना वोट किसको देंगे? नेहरु का जवाब था, राम मनोहर लोहिया को. यह लोहिया का समाजवादी चेहरा और ईमानदार व्यक्तिव था, जो विरोधियो को भी बहुत भाता था. इस चुनाव में फूलपुर संसदीय शेत्र से नेहरु और लोहिया आमने- सामने थे. नेहरु कांग्रेस के उम्मीदवार थे और लोहिया प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के. इस चुनाव के परिणाम बहुत चौकाने वाले नहीं थे. लोहिया चुनाव हार गए. इस सीट से नेहरु की तीसरी जीत थी. यह नेहरु का विशाल व्यक्तिव था, जो लोहिया पर भारी पडा. नेहरु तीसरी बार देश के प्रधानमन्त्री बने, लेकिन एक बात तय है की लोहिया ने इस छेत्र पर अपनी जो छाप छोड़ी, उसके दूरगामी परिणाम रहे. लोहिया की उत्कंठा लोकसभा में जाने की थी. उनका मानना था कि संसद पब्लिक विचारों का आइना है. लोहिया जो ठान लेते थे, उसे पूरा करके ही दम लेते थे. इस मामले में भी यही हुआ. 1963 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद संसदीय सीट पर उपचुनाव हुए और लोहिया चुनाव जीतकर संसद पहुचे.
लोहिया सही अर्थो में समाजवादी नेता थे. वे उन समाजवादी नेताओ में थे जिन्होंने समाजवाद को जिया. उनके निधन के समय उनके बैंक अकाउंट में एक भी पैसा नहीं था. तीसरी लोकसभा में प्रधानमन्त्री के ऊपर किये जाने वाले खर्च को लेकर जो उन्होंने सवाल उठाये, उसका जवाब शायद कांग्रेस के पास नहीं था. उन्होंने प्रधानमन्त्री की सुरक्षा पर होने वाले खर्च पर सवाल उठाया. लोकसभा में दिए गए अपने एतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा था की देश की 27 करोड़ आबादी की एक दिन की कमाई केवल 21 पैसे है, जबकि इस देश के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा पर रोज पांच हजार रुपये खर्च होते हैं. आज भले ही लोहिया का यह सवाल लोकसभा का सामान्य सा प्रशन लगे, लेकिन लोहिया ने यह सवाल उस दौर में पूछने का साहस किया था, जब लोकसभा कांग्रेस्मई थी. सदन में विपक्ष के नाम पर कुछ भी नहीं था और नेहरु के आगे बड़े-बड़ो की आवाज़ नहीं निकलती थी.
और सच हुआ नेहरु का कहा...
आप सोच रहे होंगे क़ि आखिर इन जानकारियो की क्या जरुरत है तो मकसद सिर्फ और सिर्फ एक है। आपको आजादी के बाद से देश की प्रमुख और दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रमों से रूबरू कराना... इसीलिए हम लेकर आये हैं आपके लिए यह कालम :
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
यह नौजवान एक दिन देश का प्रधानमंत्री होगा... यह आकलन था देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर। 1957 में दूसरी लोकसभा चुनाव में वाजपेयी उत्तर प्रदेश के बलरामपुर सीट से जनसंघ के उम्मीदवार थे। यह उनका पहला चुनाव था। कांग्रेस की लहर के बावजूद इस चुनाव में वाजपेयी विजयी हुए। दरअसल, इस चुनाव के दौरान एक जनसभा में नेहरु जी वाजपेयी जी के विचारों को सुनकर इतने प्रभावित हुए की उनके मुह से बेसाकता निकल पड़ा की यह व्यक्ति एक दिन प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठेगा। अटल जी के व्यक्तिव से नेहरु बहुत प्रभावित रहते थे। नेहरु जी का यह कहा 39 साल बाद सुच साबित हुआ। 11वी लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमन्त्री बने। अटल की 13 दिन की सरकार सबसे कम उम्र की सरकार थी।
12वी लोकसभा में 13 महीनो और 13वी लोकसभा में 5 साल के लिए वे प्रधानमन्त्री रहे। अपने लम्बे राजनीतिक सफ़र में अटल 8 बार लोकसभा और 2 बार राज्यसभा के सदस्य रहे। वह चार राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली से चुनाव जीते। ऐसे कम ही नेता हैं जो चार राज्यों में राजनीतिक पकड़ रखते हो और चुनाव जीतने का माद्दा रकते हो। 1977 में वे मोरारजी देसाई सरकार में विदेश मंत्री रहे और उनके इस कार्यकाल को कुशल विदेश मंत्री के रूप में जाना जाता है।
इतिहास से दिलचस्प मुकाबले
यह नौजवान एक दिन देश का प्रधानमंत्री होगा... यह आकलन था देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर। 1957 में दूसरी लोकसभा चुनाव में वाजपेयी उत्तर प्रदेश के बलरामपुर सीट से जनसंघ के उम्मीदवार थे। यह उनका पहला चुनाव था। कांग्रेस की लहर के बावजूद इस चुनाव में वाजपेयी विजयी हुए। दरअसल, इस चुनाव के दौरान एक जनसभा में नेहरु जी वाजपेयी जी के विचारों को सुनकर इतने प्रभावित हुए की उनके मुह से बेसाकता निकल पड़ा की यह व्यक्ति एक दिन प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठेगा। अटल जी के व्यक्तिव से नेहरु बहुत प्रभावित रहते थे। नेहरु जी का यह कहा 39 साल बाद सुच साबित हुआ। 11वी लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमन्त्री बने। अटल की 13 दिन की सरकार सबसे कम उम्र की सरकार थी।
12वी लोकसभा में 13 महीनो और 13वी लोकसभा में 5 साल के लिए वे प्रधानमन्त्री रहे। अपने लम्बे राजनीतिक सफ़र में अटल 8 बार लोकसभा और 2 बार राज्यसभा के सदस्य रहे। वह चार राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली से चुनाव जीते। ऐसे कम ही नेता हैं जो चार राज्यों में राजनीतिक पकड़ रखते हो और चुनाव जीतने का माद्दा रकते हो। 1977 में वे मोरारजी देसाई सरकार में विदेश मंत्री रहे और उनके इस कार्यकाल को कुशल विदेश मंत्री के रूप में जाना जाता है।
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